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________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४४७ ( मालिनी) त्ययहरणनयेन ज्ञानपुजोऽयमात्मा प्रकटतरसुदृष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी । विदितसकलमूर्तामूर्ततस्वार्थसार्थः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥२८०।। पारणं अप्पपयासं, पिच्छ्यण्यएण दंसणं तम्हा । प्रप्पा अप्पपयासो, रिगच्छ्यरण्यएण दंसणं तम्हा ॥१६॥ ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात । आत्मा आत्मप्रकाशो निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् ।।१६५॥ ये जान निश्चय न आत्मा को जानता । वमे ही ये दर्शन भी यात्गा प्रकाशता ।। प्रात्मा भी निश्चय नय से प्रात्म प्रकाशता । दर्शन भी तो वैसे ही ग्रामा प्रकाशना । १६५।। (२८०) श्लोकार्थ--जान स्वरूप यह आत्मा अत्यन्त प्रगट दर्शन बाला E होता हुआ व्यवहारनय से सर्वलोक को देखने वाला है तथा समस्त मर्तिक अमतिक E ऐसे तत्त्वार्थ समूह को जानता हुआ वह परम लक्ष्मी रूपी कामिनो का प्रिय वल्लभ में हो जाता है। भावार्थ-आत्मा के दर्शन और ज्ञान ये भेद सद्भुत व्यवहारनय से ही हैं निश्चयनय से तो यह अग्वगड एक ही हैं । गाथा १६५ अन्वयार्थ-[निश्चयनयेन] निश्चयनय से [ज्ञानं] ज्ञान [ आत्मप्रकाशं ] आत्म प्रकाशी है, [ दर्शनं तस्मात् ] दर्शन भी उसीप्रकार आत्म प्रकाशी है । [निश्चयनयेन] निश्चयनय से [ आत्मा ] आत्मा [ आत्मप्रकाशः ] आत्मप्रकाशी है, [दर्शनं तस्मात् ] दर्शन भी वैसा ही है । ui-la मामल
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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