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________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २६५ तथा हि (मालिनी) अथ नियतमनोवाक्कायनेन्द्रिको भववनधिसमुत्थं मोहयावःसमूहम् । कनकयुवतिवांच्छामप्यहं सर्वशक्त्या प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि ।।१३४।। ... - .... -... - - अवस्था में वे योगी एकाकी होते हुए भी अशरणरूप नहीं हैं किन ज्ञानस्वरूप में परिणत आत्मा ही उनके लिए शरणभूत है । उस वीतराग निर्विकल्प व्यान के पूर्व निष्कर्मण निश्चल अवस्था नहीं होती है और न ही पुण्यका आवश्यक क्रियाएं ही छूटती हैं। उमीप्रकार से [टीकाकार मुनिराज मन इन्द्रिय आदि पर नियन्त्रण करने का अगदेश देते हुए कहते हैं--] (१३४) श्लोकार्थ-मन, वचन, काय सम्बन्धी और मम्पूर्ण पांचों इन्द्रिय सम्बन्धी इच्छाओं का जिसने नियन्त्रण कर दिया है एसा मैं अब भव समुद्र में उत्पन्न हए ऐसे मोह रूप मत्स्य' के समूह को तथा कनन और कामिनी की वाञ्छा को भी प्रबलतर विशुद्ध ध्यानमयी सर्वशक्ति से छोड़ता हूं। भावार्थ-सम्पूर्ण इच्छाओं के निरोध से ही मोह के निमित्त से होने वाली पर वस्तु की चाह रूप विभाव भावनाएं छोड़ी जा राकनी हैं अन्यथा एक पर एक इच्छाएं तो होती ही जाती हैं। यहां पर टीकाकार ने ऐसा संकेत किया है कि इन वांछाओं के त्याग करने में सर्वशक्ति लगा देनी चाहिए, क्योंकि तप और त्याग दान शक्ति के अनुसार कहे गये हैं किंतु विभाव भावों को छोड़ने में सारी शक्ति लगा देनी चाहिए अर्थान् अत्यधिक पुरुषार्थ करके वांछाओं का दमन करना चाहिए । १. यादो वैशारिगो भव इति-यादस्-मत्स्य ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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