________________
जन्म
२६४ ]
नियमसार
-
अत्र सफल विभावसंन्यासविधिः प्रोक्तः । कमनीयकामिनीकांचनप्रभृतिसमस्तपरद्रव्यपुरणपर्यायेषु ममकारं संत्यजामि । परमोपेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि प्रात्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृतिपुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणति परिहरामि । तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः--
(शिखरिणी) "निषिद्धे सर्वस्मिन सुकृतरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नष्कर्थे न खलु मुनयः संत्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञान प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥"
- - - - - टीका-यहां पर सम्पूर्ण विभाव के त्याग की विधि का कथन है । सुन्दर कामिनी, कांचन मृवर्ण आदि सम्पूर्ण परद्रव्य और उनकी गणपर्यायों में मैं ममकार ! भाव को छोड़ता हूं । परमोपेक्षा लक्षण से लक्षित निर्ममकार स्वरूप आत्मा में स्थिर | होकर और निश्चितरूप से आत्मा का ही अवलम्बन लेकर संसाररूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न हुए मुख दुःखादि रूप अनेक विभाव परिणति का मैं त्याग करता है ।
उसी प्रकार से अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है
"इलोकार्य—'निश्चितरूप से पुण्य और पापरूप सम्पूर्ण कर्मों के निषिद्ध हो । जाने पर-छूट जाने पर तथा निष्कर्मरूप बाह्य क्रियाओं से शून्य अवस्था के हो जाने पर वास्तव में मुनिराज अशरणरूप नहीं हैं। उस काल में ज्ञान में आचरण-परिणमन ।। करता हुआ ज्ञान ही उन मुनियों के लिये शरण है, वे उस ज्ञान में लीन होते हुए स्वयं । परम अमृत का अनुभव करते हैं।"
भावार्थ-वीतरागी मुनि जब शुद्धोपयोग रूप ध्यान में लीन हो जाते हैं तब | उनके पुण्य और पाप की क्रियाओं का सम्पूर्ण व्यापार रुक जाता है, उस निर्विकल्प।
१. समयसार क. १०४ ।
LIr
..
.
.
.
..
..
.
.
...
.