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नियमसार
( अनुष्टुभ् ) प्रप्यात्मनि स्थिति बुद्ध्वा पुद्गलस्य जडात्मनः । सिखास्ते कि शिठंति स्वारगे जिवानि !!x.!! एयरसरूवगंधं बोकासं तं हवे सहावगुरणं । विहावगुणमिदि भणिदं, जिणसमये सच पयडत्तं ॥२७॥
एफरसरूपगंधः द्विस्पर्शः स भवेत्स्वभावगुणः । विभावगुण इति भणितो जिनसमये सर्वप्रफटत्वम् ।।२७।।
जो एक रस व एक रूप एक गंध हैं। स्पशं दो हैं प्रा में स्वभावगुण वे हैं।। जिनदेव के शासन में कहें सर्वप्रगट जो ।
स्कन्ध में मुण जो रहें विभाव गुगा है वो ॥२७।। - - - - - - - - - - - परमाणु में नहीं है इसलिये बह अविभागी है तथा पवन अग्नि ग्रादि में वह नष्ट भी नहीं किया जा सकता है ऐसा परमाणु होता है ।
[ अब टीकाकार मुनिराज परमाणु रूप पुद्गल के और सिद्ध के स्वभाव का बोध कराते हुये श्लोक कहते हैं - ]
( ४० ) इलोकार्थ-जड़ात्मक पुद्गल की स्थिति को उसके स्वरूप में ही जानकर वे मिद्ध भगवान् चिदात्मक अपने स्वरूप में ही क्यों नहीं रहेंगे ? अर्थात रहेंग हो रहेंगे।
भावार्थ-जड़ स्वरूप पुद्गल अपने जड़ स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं प्रत्युत अपने जड़ स्वभाव में ही रहते हैं उसी प्रकार से सिद्ध परमेष्ठी भी अपने चैतन्य स्वभाव में ही स्थिर रहते हैं यह अभिप्राय हुआ।
गाथा-२७ अन्वयार्थ--[ एकरसरूपगंध: ] जो एक रस, एक वणं, एक गंध बाला है और [ विस्पर्शः ] दो स्पर्श गुण बाला है [ सः ] वह [ स्वभाव गुणः ] स्वभाव गुण वाला है [ सर्व प्रकटस्वं ] जिसमें सब गुण प्रकट हैं वह [ विमाव गुणः ] विभाव गुण वाला है [ इति जिनसमये भणितं ] इस प्रकार जिन शासन में कहा गया है।