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________________ मार्ग अजीव अधिकार [ ७५ परमाणु विशेषोक्तिरियम् । यथा जीवानां नित्यानित्यनि गोदा दिसिद्धक्षेत्रपर्यन्त स्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावविवक्षासमाश्रयेण सहज निश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्तम्, तथा परमाणु द्रव्याणां पञ्चमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि स्वस्थात्मैव परमाणुः । अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वात् अनिलानलादिभिर विनश्वरवादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि । का कोई एक सबसे छोटा टुकड़ा है कि जिसका अब दूसरा विभाग हो ही नहीं सकता है वह परमाणु कहलाता है । टीका - यह परमाणु का विशेष कथन है । जैसे सहज गरम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय लेने वाले ऐसे सहज निश्चयनय की अपेक्षा से नित्य निगोद और इतर निगोद से लेकर सिद्ध क्षेत्र तक रहने वाले जीवों का अपने स्वरूप से प्रच्युत न होना कहा गया है उसी प्रकार से पंचम भाव रूप पारिणामिक भाव की अपेक्षा परमाणु द्रव्यों का परम स्वभाव रूप होने से प्रात्म परिणति की आत्मा ही प्रादि ग्रात्म परिणति की आत्मा ही मध्य है और अपनी आत्मा ही अंत भी है ऐसा परमाणु होता है इसलिये इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं होने से वायु, अग्नि आदि से नष्ट न होने से अविभागी है, हे शिष्य ! वह परमाणु है इस प्रकार से तुम जानो । भावार्थ - नित्य निगोद से लेकर सिद्ध जीव पर्यंत सभी जीव सहज शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मे अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते हैं, प्रत्येक जीव में स्वाभाविक अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख रूप अनंत चतुष्टय आदि ग्रनन्त गुण विद्यमान हैं । ये जीव संसारी हैं, इनकी आत्मा के गुणों को कर्मों ने घात रखा है। ये सिद्ध जीव है, इन्होंने कर्मों का नाश करके अपने अनंत गुणों को प्रगट कर लिया है । संसारी जीव दुःखी हैं और सिद्ध जीव सुखी हैं यह सब भेद भाव करने वाला व्यवहारनय ही है । यहां पुद्गल के परमाणु की शुद्ध श्रवस्था को बतलाने के लिये उपर्युक्त कथन को दृष्टांत रूप से लिया है। एक परमाणु का अपने स्वरूप से जो परिणमन हो रहा है। वही उसका आदि मध्य और अंत है अन्य कुछ यादि मध्य अंत का विभाग उस
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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