SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव अधिकार वचनसंदर्भः । तत्वानि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वपरमात्मतत्त्व मेदभिन्नानि अथवा जोवाजीवाबसंवरनिराबन्धमोक्षारणा मेवात्सप्तधा भवन्ति । तेषां सम्पकक्षद्धानं व्यवहारसम्यक्यामिति । ( आर्या ) भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न समस्ति । तहि मवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ॥१२॥ शंका रहित को प्राप्त कहते हैं, यहां शंका में मकल मोह, राग, द्वेष यादि को लिया है । उन प्राप्त के मुख कमल मे विनिर्गत ममस्त पदार्थों के विस्तार के ममर्थन में कुशल चतुर वचनों की रचना का प्रागम कहत है। वहिस्तन्व, अंतस्तत्त्व और परमात्मतत्त्व के भेद से तत्त्वों के तीन भेद हैं अथवा जात्र, अजीब, आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष के भेद से तत्वां के गात भेद होते हैं । उन प्राप्त, प्रागम और तत्त्वों का सम्यक् श्रद्धान करना व्यवहार मम्यक्त्व हे । विशेषार्थ---यहां तत्त्वों के भेद में बहिस्तन्य में अचेतन तत्त्व को लिया है योर अंतस्तत्व में चेतन तत्व को लिया है तथा परमात्मा त्व को अलग कहा है किन्तु अंतस्तत्वरूप चेतन तत्त्व में परमात्मतत्त्व शामिल हो जाता है अत: मुख्य तन्ब दो ही हैं। [ यहां बहिस्तत्त्व और अंतस्तत्त्वस्वरूप परमात्म तब ऐसे दो भेद भी कोई करने हैं किन्तु अंतस्तत्व को परमात्मतत्त्व का विशेषण कर देने पर तो संसारी जोवों का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो पाता है । अतः तत्त्वों के तीन भेद है ऐमा अर्थ करना ठीक प्रतीत होता है । ] अथवा बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के भेद से भी तत्त्वों के तीन भेद हो सकते हैं। ! | अब टीकाकार मुनिराज सम्यक्त्व के प्रकरगा में भक्ति के महत्व को बतलाते हुये श्लोक कहत हैं- ] (१२) इलोकार्थ---भव के भय को भेदन करने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान में क्या आपकी सुखदायक भक्ति यहां नहीं है । तब तो आप भव समुद्र के मध्य में रहने वाले मगर के मुख के अंतर्गत ही हैं ऐसा समझे, अर्थात् यदि ग्राप जिनेन्द्र भगवान् को भक्ति नहीं करते हैं तो आप संमार समुद्र में ही डूब जावेंगे, पार नहीं हो
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy