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________________ १२ ] नियमसार प्रत्तागमतच्चाणं, सहहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगयग्रसेसदोसो, सयलगुणप्पा हवे प्रत्तो ॥५॥ प्राप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम् । व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः ।।५।। सत्यार्थ प्राप्त मागम प्रो तत्त्व बताये । बस इनके हि श्रद्धान से सम्ययत्व कहाय ।। संपूर्ण दोष रहिन सकल गुण से युक्त जो। जो मात्मा है प्राप्त बोत राग द्वेष जो ।।५।। व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । आप्तः शंकारहितः । शंका हि सकलमोहरागद्वेषादशः । प्रागमः तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षः चतुर ....... . . --.-. - कुछ ज्ञान नहीं है, आत्मा ही दर्शन है भिन्न दर्शन भी कुछ नहीं है एवं शोल भी अन्य कुछ नहीं है अर्थात् प्रात्मा ही शोल है । ऐसा मुक्ति दच्छुक--मोक्ष को प्राप्त होने वाले श्री अरिहंत देव ने कहा है या जानकर वह भव्य जीव पुन: माता के गर्भ में नहीं प्राता है। भावार्थ-आस्मा को छोड़कर रत्नत्रय नहीं पाया जाता है इसलिये आत्मा ही रत्नत्रय स्वरूप है। इस ग्रामा से भिन्न अन्य कुछ दर्शन, ज्ञान और चारित्र नहीं है ऐसा समझ कर जो मुनिराज भेद रत्नत्रय के अनन्तर अभेद रत्नत्रय की उपासना करते हैं वे भव्य जीव पुन: जन्म मरण के दुःखों से छूट जाते हैं । इस कलश की गाथा में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने रत्नत्रय का वर्णन करके मैं प्रत्येक का अलगअलग वर्णन करूगा ऐसा कहा है। गाथा ५ अन्वयार्थ-[ प्राप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानात् ] प्राप्त, अागम और तत्त्वों के श्रद्धान से [ सम्यक्त्वं भवति ] सम्यवन्ध होता है [ व्यपगताशेषदोषः ] समस्त दोषों से रहित [ सकलगुणात्मा आप्तः भवेत् ] और सकल गुणों से सहित आत्मा आप्त होता है। टीका-यह व्यवहार सम्यक्त्व के स्वरूप का कथन है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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