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________________ ३४४ ] नियममार इह हि समाधिलक्षणमुक्तम् । संयमः सकलेन्द्रियव्यापारपरित्यागः । निक स्वात्माराधनातत्परता । आत्मानमात्मन्यात्मना संधत्त इत्यध्यात्म तपनम् । सकला क्रियाकांडाडम्बरपरित्यागलक्षणान्तःक्रियाधिकरणमात्मानं निरवधित्रिकालनिरूपाणि, रूपं यो जानाति, तत्परिणतिविशेष: स्वात्माश्रयनिश्यधर्मध्यानम् । ध्यानध्येयध्यास फलादिविविधविकल्पनिमुक्तांतर्मुखाकारनिखिलकरणग्रामागोचरनिरंजननिजपरमता विचलस्थितिरूपं निश्चयशुक्लध्यानम् । एभिः सामग्री विशेषः सार्धमखंडातपरमक्षित मात्मानं यः परमसंयमी नित्यं ध्यायति, तस्य खलु परमसमाधिर्भवतीति । { अनुष्टुम् ) निबिकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये । द्वता तविनिमक्तमात्मानं तं नमाम्यहम् ॥२०१॥ टीका-ग्रहां पर समाधि का रक्षण कहा है । समस्त इन्द्रियों के व्यापार का परित्याग संयम कहलाता है। निगम गन्द से स्वात्मा के आराधन मं तत्परता का होना है जो आत्मा को आन्मा के द्वा आत्मा में सम्यकप्रकार में दान करता है-रिथर करता है, वह अध्यात्मरूप तपन : तप है। सम्पुर्ण राह्य क्रियाकांइरूप आडम्बर के परित्याग स्वरूप और अतरंग कि के आधारभूत ऐमो आत्मा जो कि अबधि रहित त्रिकाल में उपाधिरहित स्वरूप उमको जो जानता है वह परिणति विशेष स्वात्माश्रित धर्मध्यान है । ध्यान, ध्येय ध्याता और उनके फलादिरूप विविध विकल्पों से रहित, अन्तर्मुखाकार ममस्त इंडित ग्रामों के अगोचर, निरंजन ऐसे निज परमतत्त्व में अविचलस्थितिरूप निश्चय शुक्ला होता है । इन मंयम, नियम, तप निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानझप गामग्री विश से रहित जो परमसंयमी अखंड अ त परम चिन्मय आत्मा का नित्य ही ध्यान कारख है उस संयमी के निश्चितरूप से परग समाधि होती है । [टीकाकार मुनिराज ऐसे संयमियों की वंदना में तत्पर हुए कहते हैं (२०१) श्लोकार्थ-जो चैतन्यमय निविकल्प समाधि में नित्य ही स्थि होते हैं उन हैत और अद्वैत से निर्मुक्त ऐसी आत्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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