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________________ परम-समाधि अधिकार ( उपजाति ) समाधिना केनचिदुत्तमात्मनां हृदि स्फुरन्तीं समतानुयायिनीम् । यावन्न विद्मः सहजात्मसंपदं न मादृशां या विषया विवामहि ||२००|| संजमरियमतबेर दु. धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेख । जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥ १२३ ॥ संयमनियमतपसा तु धर्म्यध्यानेन शुक्लध्यानेन । यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ॥ १२३ ॥ संयम नियम श्री तपश्चर्या को मदा जो धारते । निजधध्यान विशुद्ध से निज आत्मा को ध्यावते ॥ याशुवन ध्यान विशेष से शुद्धात्म में लम्भय हुए। उन साधु के ही कहो परमसमाधि वे निजमय हुये ||१२३ || [ ३४३ [ अब टीकाकार मुनिराज परमसमाधि की भावना को भाते हुए कहते हैं- ] ( २०० ) श्लोकार्थ - किसी (एक अद्वितीय - परम ) समाधि के द्वारा उत्तम आत्माओं (उत्तम अंतरात्माओं) के हृदय में स्फुरायमान होती हुई, समता भाव की अनुपिनी ऐसी सहज आत्मसंपत्ति का जब तक हम अनुभव नहीं करते हैं, तब तक हम जैसे साधुओं के लिये विषयभूत जो कोई मुख है उसको नहीं समझ सकते हैं । गाथा १२३ अन्वयार्थ -- [ संयम नियम तपसा तु ] संयम, नियम और तप से तथा, [ धर्मध्यानेन - शुक्लध्यानेन ] धर्मध्यान और शुक्लध्यान से, [ यः आत्मानं ध्यायति ] जो आत्मा को ध्याता है, [ तस्य परम समाधिः भवेत् ] उस साधु की परम समाधि होती है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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