SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार "दंसरणपुध्वं गाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवप्रोग्गा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोघि ॥" तथा हि-- वर्तते ज्ञानदृष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे सर्वज्ञेऽस्मिन समंतात् युगपदसदृशे विश्वलोकैकनाथे । एतायुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन् तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम् ॥२७३॥ ( वसंततिनका ) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशिमुल्लंघ्य शास्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता। "गाथार्थ-छद्मस्थ' जीवों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, क्योंकि उनके यगपत् दो उपयोग नहीं होते हैं। और केवली भगवान के वे दोनों उपयोग युगपत् ही होते हैं।" उसी प्रकार से [ श्री टीकाकार मुनिराज केवलज्ञानी भगवान की चरण शरण को ग्रहण करते हुये चार श्लोक कहते हैं-] (२७३) श्लोकार्थ-धर्मतीर्थ के अधिपति, विश्वलोक के एक नाथ असदृशलोकोत्तर से इन सर्वज्ञ भगवान् में सतत् सब तरफ से ज्ञान और दर्शन युगपत् रहते हैं। जैसे अखिल तिमिर समूह को नष्ट करने वाले, तेज के पुज स्वरूप, इस सूर्य में ये उष्णत्व और प्रकाश एक साथ इस लोक में जगत के जीवों के नेत्र गोचर होते हैं। उसी प्रकार से वे ज्ञान और दर्शन भी केवली के यगपत प्रगट होते हैं। (२७४) श्लोकार्थ-हे देव ! आप सद्बोधरूपी जहाज में बैठकर संसाररूपी समुद्र को उलंघ कर सहसा शाश्वतपुरी में पहुंच गये हैं। अब मैं भी उस जिननाथ के १. द्रव्यसंग्रह गाथा-१४
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy