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________________ १७८ ] नियमसार तथा चोक्त श्री पूज्यपादस्वामिभिः (अनुष्टुभ् ) "एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः । ए५ शोषः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ॥" तथा हि (मंदाक्रांता) त्यक्त्वा वाचं भवभयकरी भव्यजीवा समस्तां ध्यात्वा शुद्ध सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम् । पश्चान्मुक्ति सहजमहिमानंदसौख्याकरी तां प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः ।।६२॥ और अगम्य वचनों से निवृत्त होना वचनगप्ति है अथवा अन्य सभी अप्रशम्न वचनों का त्याग ही वचन गप्ति है। उनीप्रकार में श्री पुज्यपादस्वामी ने कहा है श्लोकार्थ---इमप्रकार में बाह्य वचनों को त्याग कर परिपूर्णरूपमे अंतर्जल्प । को भी छोड़े संक्षर से यह योग-समाधि परमात्मा का प्रदीप है अर्थात् अंतर्बाह्य बचनों का त्याग ही मंक्षप से परमात्मतत्त्व को प्रकाशित करने वाले दीपक के ममान है. '।' ___विशेषार्थ-ग्रहां वचन गुप्ति में भी विकथाओं के त्याग करने को और असत्य वचन के त्याग को गुप्ति कहा है। इसलिये यहां पर भी प्रशस्त सत्यवचन के त्याग को नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यह भी व्यवहार वचन गुप्ति ही है। । अशुभ बचनों से निवृत्ति मात्र ही यहां पर विवक्षित है। (६२) श्लोकार्थ-भव्यजीव भवभय को करनेवाली ऐमी समस्त वाणी को छोड़कर शुद्ध, एक, सहजप्रकाशमान, चिच्चमत्कार आत्मा का ध्यान करके पापरूपी अंधकार के समूह को नाश करने वाले ऐसे वे साधु सहज महिमा स्वरूप और आनंद की खान उम मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त कर लेते हैं ।।१२।। १. समाधितंत्र .....
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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