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________________ ४४ देष मोह क्रोध मान माया लोभ प धिकारी भाव भी मेरे नहीं हैं। मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव वाला स्वतन्त्र जीव दव्य है।" इस प्रकार भेदाभ्यास करने के जीव मध्यस्थ होता है और मध्यस्थ भाव से चारित्र होता है। उस चारित्र को दृढ़ करने के लिये प्रतिक्रपण होता है । यर्थाथ में प्रतिक्रमण किसके होता है ? इसका कितना स्पष्ट वर्णन कुन्दकुन्द स्वामी ने किया है। देखिये-- ओ बचन रचना को छोड़कर तथा रागादिभावों का निवारण कर आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण होता है और ऐसे परमार्थ प्रतिक्रमण के होने पर ही चारित्र निर्दोष हो सकता है । निश्चय प्रत्याख्यानाधिकार : प्रत्यास्थान का अर्थ त्याम है। यह त्याग विकारी भावों का ही किया जा सकता है स्वभाव का नहीं-ऐसा विचार करता हुआ जो समस्त वचनों के विस्तार को छोड़कर शुभ-अशुभ भावों का निवारण करता है तथा भारमा का ध्यान करता है उसी के प्रत्याख्यान होता है । शुभ-अशुभ भाव, इस जीव के प्रात्मध्यान में बाधक हैं प्रतः प्रत्याख्यान करने झाले पुरुषों को सबसे पहले शुभ-अशुभ भावों को सगम उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिये। निश्चय प्रत्यास्थान की सिद्धि के लिये प्राचार्य महारात ने इसप्रकार की भावनामों का होना मावश्यक, बतलाया है मैं निममत्व भाव को प्राप्त कर ममत्व भाब | छोरता है। मेरा मालम्बन मेरा प्रात्मा ही है, शेष पालम्बनों को मैं छोड़ता है । इत्यादि । (७) परमालोचनाधिकार : परमालोचना किसके होती है ? श्वका उत्तर देते हा कहते हैं-- जो नोकम और कर्म से रहित तथा बिभाव गुरग और पर्यायों से भिन्न प्रात्मा का ध्यान करता है ऐसे श्रमण-मुनि के ही मालोचना होती है । ' यागम में १. पालोचन २. मानुष्ठन ३. भाविकृतिकरण मोर ४, भाव शुदि के भेद से पालोचमा के पार अंग कहे गये हैं । पुन: इन मंगों के पृथक-पृथक् लक्षण बनाये गये हैं। (८) शुद्धनिश्चयप्रायश्चिचाधिकार : व्यवहार दष्टि से प्रायश्चित्त के अनेक रूप सामने प्राते हैं परन्तु निश्चय नपसे उसका क्या रूप होना चाहिये इसका दिग्दर्शन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इस मधिकार में किया है। वे कहते हैं कि प्रत, समिति, शीत और
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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