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| . शुद्ध भावाधिकार में मात्मा को इन्हीं विभाव परिणामों से पृथक् सिद्ध करने के लिये कहा गया है
कार्य की उत्पत्ति बहिरङ्ग मार मन्तरङ्ग कारणों से होती है अतः सम्परत्व को उत्पत्ति के बहिरङ्ग पौर , मन्तरङ्ग कारणों का कथन करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है -
सम्मतस्स णिमित निणसुत तस्त जाणया पुरिसा।
अन्तरहेक मणिदा बसणमोहम्स खय पपी ॥५३।। प्रर्षात् सम्यग्दर्शन का वाहा निमित्त जिनागम तथा उसके माता पुरुष हैं, और अम्त र निमित्त वर्णन __ मोह कर्म का आप मादिक है !
मन्तर निमित्त के होने पर कार्य नियम से होता है परन्तु बहिरङ्ग निमित्त के होने पर कार्य की उत्पत्ति होने का नियम नहीं है। हो भी पोर नहीं भी हो।
इस अधिकार में कम जनित प्रशुद्ध भायों को अनात्मीय रतनाकर स्वाधित शुद्ध भाव को प्रात्मीय बसलाया है।
(४) व्यवहार चारित्राषिकार :
इस अधिकार में पहिमा, सत्य, संघीयं, बाय, अपरिग्रह इन पांच महायतों का, ईर्या, भाषा, गषणा पादान निकोपरण पीर प्रतिष्ठापन इन पांच समितियों का, मनोप्ति, घचन गुप्ति और काय गुप्ति इन तीन गुप्सियों का तथा परहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों का स्वरूप बतलाया गया है । हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और एग्गिह ये पांच पाप थे. पनासे हैं। इनके माध्यम से प्रात्मा में कर्मों का पात्रय होता है प्रतः इनका निरोध करना सम्पफचारित्र है। पांच पापों का पूर्ण त्याग हो जाने पर पांच महावत प्रकट होते हैं उनकी रक्षा के लिये ईयां प्राधि पाच समितियों पोर तीन गुप्तियों का पालन करना प्रायश्यक है । महायतों की रक्षा के लिये प्रवचन-मागम में इन पाठ को माता को उपमा दी गई है इसीलिये इन्हें अष्ट प्रवचन मासृका कहा गया है। व्यवहारनय से यह तेरह प्रकार का चारित्र कहलाता है। इस अधिकार में इसी व्यवहार चारित्र का वर्णन है।
(५) परमार्थ प्रतिक्रमणाधिकार :
इस प्रषिकार में फर्म और नौकम से भिन्न प्रात्मस्वरूप का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम कहा गया है कि "मैं नारको नहीं है, तिर्यप नहीं है, मनुष्य नहीं हूँ. देव नहीं है, गुणस्थान मार्गरणा सभा जीव समास नहीं हूं, न इनका करने राता हूं, न कराने वाला हूँ, भोर न अनुमोदना करने वाला है। बालर प्राधि अवस्था तथा राग