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________________ ४२ स्कन्ध से बिछुड़कर एक प्रदेशात्मक अवस्था को प्राप्त पशुको कार्य परमाणु कहते हैं परमाणु का लक्षण इस प्रकार कहा है वही जिसका आदि है, वही मध्य है, यही अन्त है, जिसका इन्द्रियों के द्वारा पा नहीं होता तथा जिसका दूसरा विभाग नहीं हो सकता उसे परमाणु जानना चाहिये । इस परमाणु में एक रस, एक रूप, एक गन्ध और शीत उष्ण में से कोई एव तथा स्निग्ध धौर रूक्ष में से कोई एक इस प्रकार दो स्पशं पाये जाते हैं। दो या उससे अधिक परमाणुओं के पिण्ड को स्कन्ध कहते है । प्रशु श्रीर स्कन्ध के भेद से पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं। जीव और पूगल के गमन का जो निर्मित है उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। जीव और पुद्गल की स्थिति का जो निमित्त है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं जोवादि समस्त द्रव्यों के अथाह का जो निमित्त है उसे प्रकाश कहते हैं । समस्त द्रयों को अवस्थों के बदलने में जो सहकारी कारण है वह कालद्रव्य है। यह कालद्रव्य समय और पावली के भेद से दो प्रकार का होता है अथवा तीत, वर्तमान और भावी (भविधर) की अपेक्षा तीन प्रकार का है। संख्यात पायनियों से गुणित सिद्ध राशि का जितना प्रभाग है उतना है। वर्तमान काल समय मात्र है और भावी (भविष्यत्) काल, समस्त जीत्र राशि तथा समस्त पुद्गल द्रव्यों से प्रतन्त गुणा है। धमं प्रथमं प्राकाश और काल इन नारों का परिणमन सदा शुद्ध हो रहता है परन्तु जीव और पुदगल प्रश्य में शुद्ध शुद्ध दोनों प्रकार का परिमन होता है। मूर्त धर्मादाय के संख्यात संख्यातीर प्रदेश होते हैं। धर्म धर्म धार एक जीव द्रव्य से प्रदेश होते है, लोककान के भी संख्यात प्रदेश है परन्तु समस्त प्रकाश के अनन्त प्रदेश है। कालव्य एक प्रदेशी है। उपर्युक्त छह दृष्यों में पुल द्रव्य भूतं है, शेष पांच द्रव्य प्रभूतं हैं। एक जीव स चेतन है शेष पांच द्रव्यप्रचेतन है। पुद्गल का परमाणु भार के जिनमें अंश को घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । शुद्धभावाधिकार : जब तत्वों की है और उपाय इन दो भेदों में विभाजित करते है । तब एजीबादि बाघ तत्व हेय है! और कर्मरूप उपाधि में रहित स्वकीय स्वयं अर्थात् शुद्ध आत्मा उपादेय है। जब तत्वों को य उपादेय तथा शेय दोन भेदों में विभाजित करते है तब जोवादि है, स्वकीय शुद्ध धात्मा उपादेय है और उसका विभास परम है। त्वयं यह कि श्रारमद्रव्य का परिणमम स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार का होता है। जो स्व में स्वके निमित्त से होता है वह स्वभाव परिमन कहलाता है जैसे जीव का ज्ञान दर्शन रूप परिणमन । और जो स्व में परके निमित्त से होता है वह विभाव परिणामन कहलाता है जैसे जीव का राग यादिरूप परामन इन दोनों प्रकार के परिणामों में स्वभाव परिणमन उपादेय है पर विभाव परिमन हे है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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