SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ यमरूप परिणाम तथा इन्द्रियदमन का भाव ही वास्तविक प्रायश्चित है। यह प्रायश्चित निरन्तर करते रहना चाहिये। भारतीय गुणों के द्वारा विकारी भावों पर विजय प्राप्त करना सच्चा प्रायश्थित है। इसीलिये कहा है क्षमा से शोध को माईन मे मान को भाव से माया को और संतोष मे लोभ को इसप्रकार थमन चार कषायों को जीतता है । (e) परमसमाधि अधिकार : परिणामों का स्वरूप में सुस्थिर होना परम समाधि है। इसकी प्राप्ति भी आम ध्यान से ही होती है। कहा है जो मुनि समता भाव से रहित है उसके लिये बनवास, प्रतापनयोग, आदि कायक्लेश, नानाप्रकार के उपवास और अध्ययन तथा मौन धादि क्या लाभ पहुंचा सकते हैं? कुछ भी नहीं सामायिक और परमसमाधि को पर्यायवाचक मानते हुये कुन्दकुन्दस्वामी मे १२४-१३३ताओं में स्पष्ट किया है कि स्थायी सामायिक किससे हो सकती है ? परम समाधि का अधिकारी फोन है इस्पादि + (१०) परमभक्ति प्रधिकार: "भजनं भक्तिः " इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपासना को भक्ति कहते हैं याना" गुणेश्वरामो भक्ति" पुरुषों के गुणों में धनुराग होना भक्ति है यह भक्ति का सार्थ श्रेष्ठ निवृति है अर्थात् मुक्ति की उपासना है । निवृतिभक्ति, योगभक्ति - शुद्धस्वरूप के ध्यान से सम्पन्न होती है । निवृतिभक्ति किसके होती है ? इसका समाधान कुन्दकुन्द स्वामी के शब्दों में देखिये सम्मताचरणे को मसि कुण्ड सायो समणो । तरस विली होबित्ति जिरोहि पम्प ।। १३४॥ जो बाबक अथवा भ्रमण सम्यग्दर्शन सम्पज्ञान और सभ्यारिती भक्ति करता है उसी के निर्वृति भक्ति होती है जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है । योगभक्ति किसके होती है ? इसका समाधान देखिये जो साधु भवने धाप की रागादि के परिहार में लगाता है धर्षात् रागादि विकारी भावों पर विजय प्राप्त करता है वही योगभक्ति से युक्त होता है। अन्य साधु के योग कैसे हो सकता है ?
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy