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________________ .. . सा-य ! ३५० ] नियमसार यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ।।१२६॥ जो त्रस तथा स्थावरों में सर्वप्राणी मात्र में । समभाव को धारण करें मुनि सर्वप्त : सब काल में ।। उन साधु के ही सर्वथा स्थायि सामायिक रहे । प्रहत शानन में कहा, यह कुन्दकुन्द गुरू कहें ।।१२६।। परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोः स्वरूपमत्रोक्तम् । यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः बिकारकारणनिखिलमोहागढ षाभावाद् भेवकल्पनापोढपरमसमरसौभानसनाथत्वात्त्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिनयोगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धनिति । -- - - - - - - - - -- - - - - [समः] समस्वभावी है, [ तस्य ] उसके [ सामायिक स्थायि ] सामायिक स्थायी है, [इति केलिशासने] ऐगा केवली भगवान के शासन में कहा है । । टीका-परम माध्यस्थ भाव आदि में आरोहण करके स्थित हुए जो परममुमुक्ष हैं उनका स्वरूप ग्रहां कहा है । ___ जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर की चूड़ामणि स्वरूप महामुनि विकार के कारणभूत ऐसे सम्पूर्ण मोह रागद्वेष के अभाव से, भेद कल्पना से रहित और परम समरसी भाव से सहित होने से बस-स्थावर जीव निकायों के प्रति समभावी हैं, उन परम जिन योगीश्वर के सनातन सामायिक नामक व्रत होता है, यह वीतराग सर्वज्ञ देव के मार्ग में सिद्ध है। भावार्थ-परम्परा से आगत समीचीन कथन सनातन कथन है यह सामायिक व्रत भी परम्परागत समीचीन व्रत है । [टीकाकार मुनिराज अभेद चारित्र की स्तुति करते हुए पुनरपि आठ श्लोक। कहते हैं-]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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