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________________ १२ ] .. नियमसार तथा चोक्त प्रवचनसारे-- "समम्रो दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दरवजादस्स । चदिवददो सो पद पदेसमागासदष्यस्स ॥" अस्यापि समयशब्देन मुख्यकालाणुस्वरूपमुक्तम् । अन्यच्च-- "लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ठ्यिा हु एक्केषका । रयणाणं रासी इव ते कालाण असंखदवाणि ॥" उक्त च मार्गप्रकाशे-~.. ----- -- -. . - विशेषार्थ-कालारणु असंख्यात् हैं वे आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालागु स्थित हैं। इसलिए काल द्रव्य तो असंख्यात हैं विन्तु काल द्रव्य के कालिक समय 'अनन्न' माने गये हैं। 'सोऽनन्तसमयः' ऐसा सूत्रकार श्री उमास्वामि आचार्य का वचन है । यहां पर यह अनन्त भी सम्पूर्ण अनन्तानन्त जीवराशि और उससे अनंतगुणी पुद्गलराशि से भी अनन्तगुणे प्रमाण जो काल है उतने प्रमाण वाला है। जो कालागु हैं वे ही परमार्थ काल हैं अर्थात् उन्हें ही निश्चयकाल द्रव्य कहा गया है । उसीप्रकार से प्रवचनसार में कहा गया है गाथार्थ- *"समय-काल तो अप्रदेशी-एक प्रदेशी है, प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु आकाश द्रव्य के प्रदेश को मंदगति से उल्लंघन कर रहा हो तब वह काल वर्तता है अर्थात् निमित्त रूप से परिणमित होता है।" यहां पर भी 'समय' शब्द से मुख्य कालाणु के स्वप को कहा है। अन्यत्र भी कहा है त्र ४ । २. प्रवचनसार गाथा १३८ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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