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शुद्धभाव अधिकार
[ १३६ ( शार्दूलविक्रीडित) शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं शुद्ध फारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहम् । इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सद्दक स्वयं सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ॥७२॥
- -.-..विशेषार्थ—मूल गाथा में आचार्य श्री ने यही कहा है कि जैसे लोक के शिखर पर सिद्ध भगवान् विराज रहे हैं वैसे ही संसार में संसारी जीव हैं। टीकाकार ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "केनचिन्नयबलेन" अर्थात् किसी नय की अपेक्षा ये मंसारी जीव गिद्धों के सदशा में न कि व्यक्त गुणपर्यायों की अपेक्षा से । पुनः आगे स्वयं ग्रंथकार श्री कुदकुद ने ४९. वीं गाथा में नयविवक्षा खोल दी है।
अब टीकाकार श्री मुनिराज नयां से अतीत अवस्था को प्राप्त हुए निविकल्प ध्यान में परिणत महामुनियों को बंदना करते हुए श्लोक कहते हैं-]
(७२) श्लोकार्थ----जो शुद्ध अगुद्ध की कल्पना है वह मिश्याष्टि जीवों में हमेशा हुआ करती है 1 किंतु कार्यतत्त्व और कारणतत्त्व दोनों शुद्ध हैं इस प्रकार की कल्पना हमेशा सम्यग्दृष्टि को होती है। जो सम्यग्दृष्टि जीव इस प्रकार से परमागम के अनुल अर्थ को स्वयं जानता है। सारामार विचार मे सहित मुन्दर बुद्धि वाले हम उसकी वंदना करते हैं ।
भावार्थ- सिद्ध जीव शुद्ध हैं और संसारी जीव अशद्ध हैं इस प्रकार की कल्पना मिथ्यादृष्टि को ही रहती है उसका अभिप्राय यह है कि जिसने नयों की विवक्षा समझी नहीं है जो निश्चयनय से जीव के शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते हैं एकांत से मात्र सिद्धों को शुद्ध और संसारी को अशुद्ध मान रहे हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । तथा जो निश्चयनय से संसार अवस्था में भी जीव के स्वभाव को तथा सिद्धों के स्वभाव को इन दोनों अवस्थाओं को शुद्ध समझते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। तथा वे ही शुद्ध निश्चयनय और व्यवहारनय से होने वाली शुद्ध अशुद्ध कल्पनारूप विकल्पों से आगे बढ़कर निर्विकल्परूप ध्यान अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं वे वीतराग सम्यग्दृष्टि होते हैं उन्हें