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________________ जीव अधिकार [ ३६ । निखिलदुरघवीरवरिसेनापजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव । प्रन्या कार्यदृष्टिः वर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेरण जातव । अस्य खलु मायिकजीवस्य --- ---- - -- - ---- - - - - - - .... --~-- लिगधा - हां भी गाया में आचार्यवर्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने स्वभावदर्शन से केवलदर्शनको ग्रहण किया है किन्तु टीकाकार ने स्वभावदर्शनोपयोग को स्वभावदृष्टि शब्द से कहा है और उसके कार्यदृष्टि तथा कारणदृष्टि ऐसे दो भेद कर दिये हैं । उसमें कार्यदृष्टि तो व्यक्त हुआ केवल दर्शन ही है और कारणदृष्टि से अपने आत्मा के श्रद्धानरूप परिणाम को विवक्षित किया है। तथा इसे निश्चय सम्यक्त्व रूप से घटित किया है । शुद्धनिश्चयनय से जो प्रात्मा का शुद्धस्वरूप है जो कि सम्पूर्ण कर्मोपाधि से रहित सिद्धों के स्वरूप के समान है उस शुद्ध स्वरूप का श्रद्धानमात्र ही कारण दृष्टि है ऐसा स्पष्ट किया है यह कारणा स्वभाव दृष्टि भी शुद्धोपयोगी महामुनियों के ही हो सकेगी। इसी प्रकार से दर्शनोपयोग को सम्यक्त्व रूप से घटित करने का प्रकरण परमात्मप्रकाश में भी देखा जाता है । तद्यथा "सयलपयत्थहं जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ। . वत्थुविसेस विज्जियउ न णियदंमा जोइ ।।३४॥" अर्थ---जो जीवों के ज्ञान के पहले सकल पदार्थों का वस्तु विशेष से रहित ग्रहण होता है उसे तुम निजदर्शन जानो। टोकाकार श्री ब्रह्मदेव मुनि कहते हैं - जो सम्पूर्ण पदार्थ ग्रहण-अवलोकन जीवों के होता है, जो कि सविकल्प ज्ञान के पूर्व होता है वह अवलोकन यह शुक्ल है' इत्यादि विकल्प से रहित उसे ही तृम निज प्रात्मा का दर्शन-अवलोकन जानों। यहां पर प्रभाकर भट्ट मुनिराज प्रश्न करते हैं कि "आपने निज आत्मा के अबलोकन को दर्शन कहा और यह सत्तावलोकन दर्शन तो मिथ्यादृष्टि जीवों में भी है उन्हें भी मोक्ष हो जावेगी।" इसका परिहार करते हैं कि चक्षु-प्रचक्षु-अवधि और केवल के भेद से दर्शन के चार भेद हैं। इन - --- - - -- १. परमात्म प्रकाश पृ. १५४ स १५ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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