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________________ ४० ] नियमसार सकलविमलकेवलायबोषयुद्धभुवन त्रयस्य स्वात्मोत्थपरमवीतरागसुखसुधासमुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधानामूर्तातोंद्रियस्वभावशुद्धसद्भुतव्यवहारनयास्मकस्य त्रैलोक्यभन्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपि --.--- चारों में से जो मानस अचक्षु दर्शन है वह आत्मा को ग्रहण करने वाला है और वह दर्शन मिथ्यात्वादि सप्त प्रकृतियों के उपशम-क्षयोपशम अथवा क्षय से जनित तत्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यक्त्व के प्रभाव से 'शुद्धात्म तत्त्व ही उपादेय हैं इसप्रकार के श्रद्धान के अभाव में उन मिथ्यादृष्टि जीवों के नहीं होता है ऐसा भावार्थ है । प्रागे और भी कहते हैं-- "दंसणपुब्बु हवेइ फुड जं जीवहँ विण्णाणु ।। ___ वत्थुविसेसु मुणतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ।।३५॥" अर्थ-जो जीवों का ज्ञान है वह निश्चित ही दर्शन पूर्वक होता है, वह ज्ञान वस्तु के विशेष को जानने वाला है, हे जीव ! उन ज्ञान को तुम अविचल जानो । टीका- जीवों के सामान्यग्राहक निविकल्प सत्तावलोकन दर्शन पूर्वक विज्ञान होता है और वह ज्ञान वस्तु के विशेष को-वर्ग, संस्थान यादि विकल्प पूर्वक वस्तु को जानना है । हे जीव ! तुम उस ज्ञान को अविचल-संशय, विपर्यय और अनध्यबसाय से रहित जानो । यहां पर दर्शन पूर्वक ज्ञान का व्याख्यान किया है । यद्यपि शुद्धात्मभावना के व्याख्यान में वह प्रस्तुत नहीं है फिर भी भगवान् श्री योगिन्द्रदेव ने कहा है । क्यों कहा है ? चक्षु-प्रचक्षु अवधि और केवल के भेद से दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है । इन चारों में दूसरा जो मानसरूप निर्विकल्प अचक्षुदर्शन है वह जिसप्रकार भव्य जीव के दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशम-क्षयोपशम या क्षय का लाभ होने पर शुद्धात्मा की रुचि रूप वीतराग सम्यक्त्व होता है और इसी प्रकार से शुद्धात्मानुभूति की स्थिरता लक्षण वीतराग चारित्र होता है उस काल में वह पूर्वोक्त सत्तावलोकन लक्षण मानस निर्विकल्प दर्शन पूर्वोक्त निश्चय सम्यक्त्व और निश्चयचारित्र के बल से निर्विकल्प निजशुद्धात्मानुभूति ध्यान का सहकारी कारण होता है और वह पूर्वोक्त भव्य जीव के ही, न कि अभव्य जोव के । क्यों ? क्योंकि अभव्य के निश्चय सम्यक्त्व और चारित्र का अभाव है ऐसा भावार्थ हुआ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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