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________________ व्यवहार चारित्र अधिकार [ १६५ रक्ताः । बाह्याभ्यन्तरसभस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्तत्वान्निर्ग्रन्थाः । सदा निरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक् श्रद्धानपरिज्ञाताचरण प्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्निमहाः च । इत्थंभूतपरमनिर्वारणसीमंतिनी चारुसीमंतसीमा शोभामसृणघसृणरजः पु'जपिंजftaari कावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेपि साधवः इति । विनिर्मुक्त होने से जो निर्ग्रन्थ है । और सदा निरंजन निजकारण समयसार के स्वरूप का सम्यकश्रद्धान, परिजान और आचरण, उसके विरोधी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के अभाव हो जाने से जो निर्मोह मोहकर्मरहित हैं । इसप्रकार के परम मोक्षरूपी स्त्री की सुन्दर मांग की शोभारूप स्निग्ध केशर के रजकणों से भुवर्णसदृश पीले रंग वाले अलंकार के अवलोकन में कुतूहल बुद्धि वाले होते हुए भी वे सभी साधु कहलाते हैं । विशेषार्थ पंचम भावरूप पारिणामिकभाव की भावना में आत्मा का स्वरूप त्रिकाल निराकरण निरंजन है अर्थात् शुद्धनिश्चयनय से जीव द्रव्य त्रिकाल में भी आवरण से रहित होने से निरंजन है, शुद्ध है इस दृष्टि से विकाल निरावरण का अर्थ लेना चाहिए। साधुजन शुद्ध निश्चयनय से आत्मा के स्वरूप को सदा ही आवरण रहित भाते हैं और लौकिक क्रियाओं से शून्य होने में सकल व्यापार से विमुक्त रहते हैं चार आराधनाओं में लीन रहते हैं। दश प्रकार के बाह्य परिग्रह और चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ हैं। यद्यपि यहां ये निर्ग्रन्थ अवस्था बारहवें गुणस्थान में घटित होती है फिर भी जो छठे सातवें गुणस्थान के योग्य उभय परिग्रह से रहित होने से यहां पर भी निग्रंथ कहलाते हैं अथवा भावी नैगमनय की अपेक्षा सभी दिगम्बर साधु निग्रंथ कहलाते हैं। निरंजन निजकारणसमयसार शब्द से - शुद्धश्चियनय से भी आत्मा का स्वभाव निरंजन है ऐसा निश्चय करके जो भेदरल के बल से अभेदरत्नत्रयस्वरूप निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परिणत अवस्था है उसीका नाम कारणममयसार है क्योंकि वही कारण, कार्यसमयसार - अनंतचनुष्टय की व्यक्तिरूप से परिणत होता है । निष्कर्ष यह निकला कि जो शुद्ध आत्मतत्व की भावना से सहित, बाह्यप्रपंचों से रहित, चार आराधनाओं की आराधना करने वाले हैं, निग्रंथ हैं निर्मोही हैं । वे, जिसकी सुन्दर केशर से मांग भरी हुई है ऐसी निर्वाणसुन्दरी का अवलोकन करने वाले हैं, फिर भी वे साधु हैं। यहां विरोधाभास भी है, जो स्त्री के रूप
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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