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________________ १४८ ] नियमसार रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् । भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविर्वाजतश्रद्धानरूपं भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागादवितद्धितसमुज्जतिनिश्वमेव । विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि च संशयविमोहविभ्रमविवज्जितमेव । तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ज्ञानत्वमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम् । इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणी तहेयोपादेयत स्वपरिच्छित्तिरेवसम्यग्ज्ञानम् । अस्य सम्यक्त्व - परिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुख कमल विनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीय कर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति । श्रभेदानुपचाररत्नत्रय टीका यह रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है । भेदोपचार रत्नत्रय भी सबसे प्रथम विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धानरूप है और वह सिद्धि के लिए परम्परा में कारणभूत ऐसे भगवान् पंच परमेष्ठियों में मल, मलिन और अगाह दोषों से रहित, उत्पन्न होने वाली जो निश्चल भक्ति है उससे युक्त ही है । अर्थात् विपरीत हरि विष्णु, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा आदि के द्वारा प्रणीत पदार्थों के समूह में आग्रह का अभाव होना ही सम्यक्त्व है, यहां ऐसा अर्थ है । राम्यग्ज्ञान भी संशय विमोह और विभ्रम दोषों से रहित ही है । उनमें में प्रथम, जिनेंद्र भगवान् देव हैं या शिव-परमेश्वर देव हैं ? इस भाव को संशय कहते हैं । शाक्य बुद्ध आदि के द्वारा कथित वस्तु में निश्चय करना विमोह है, विभ्रम अज्ञानरूप ही है, और पाप क्रियाओं से निवृत्तिरूप परिणाम चारित्र है, इसप्रकार से भेदोपचार नत्रय की परिणति है। इसमें जितेंन्द्रदेव द्वारा प्रणीत हैय उपादेय तत्त्वों का जानना ही सम्यग्जान है। इस सम्यक्व परिणाम के लिए बाह्य सहकारी कारण वीतराग सर्वज्ञ के मुख कमल से विनिर्गत समस्त वस्तुओं के प्रतिपादन में समर्थ द्रव्य श्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है और जो मुमुक्षु-मुनि हैं वे भी उपचार से पदार्थों के निर्णय में हेतु होने से अंतरंग हेतु कह गये हैं, क्योंकि वे भी दर्शन मोहनीय के क्षय, उपशम, क्षयोपशम आदि में हेतु होते हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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