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________________ [ १४७ शुद्धभाव अधिकार व्यवहारनयचरित्रे व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम।। निश्चयनयचारित्रे तपश्चरणं भवति निश्चयतः ॥५५॥ विपरीत अभिप्राय से वजित जो निरन्तर । श्रद्धान वही माना सम्यक्त्व शुभंकर ।। संशय विमोह विभ्रम से हीन ज्ञान जो 1 निजपर विवेक कर्ता सम्यक्त्व ज्ञान वो ॥५.१।। चलदोष मलिनदोष प्रो प्रगाढ़ दोष हैं । इनसे रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व श्रेष्ठ हैं ।। जो हेय उपादेय नत्त्व पार्ष में पाये । उनका हि जानना 4 श्रेष्ठ ज्ञान कहाये ।।१२।। जिनसूत्र पी उन मूत्र के ज्ञाता जो पुरुष हैं । सम्यक्त्व की उत्पनि में माने निमित्त हैं ।। दर्शन प्रमोह का कहा क्षय उपशमादि जो । बम अन्तरंग हेतू मम्यक्त्व का है त्रो ।।५.३।। सम्यकत्व ब संज्ञान में हैं मोक्ष के लिये । चारित्र भी है मोक्ष का कारण उसे सुनिये ।। चारित्र वो व्यवहार व निश्चय से द्विविध हैं । इस हेतु मैं उसको कहूंगा जो कि विविध है ।।५४18 व्यवहार नय के चारित में जो तपश्चरण । व्यवहार नय का होता है मुख्य प्राचरण ।। निश्चयनयों के आश्रित चारित्र में चरण । निश्चय से वो कहाना निज का तपश्चरण ।।५।। । --- - - - - [व्यवहारनय चारित्रे] व्यवहारनय के चारित्र में [व्यवहारनयस्य तपश्चरणं] व्यवहारनय का तपश्चरण [भयति ] होता है और [निश्चयनय चारित्रे] निश्चयनय के चारित्र में [ निश्चयतः ] निश्चयनय का [ तपश्चरणं ] तपश्चरण [ भवति ] होता है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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