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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य को मार नियममार उस्कृष्टो यो बोधो ज्ञानं तस्यैवात्मनश्चित्तम | यो धरति मुनिनित्यं प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य ।।११६॥ जो उत्कृष्ट बोध प्रात्मा का जान नाम में जग में । बो हो चित्त कहा है उस ही आत्मा का सचमुच में ।। जो मनि उसी ज्ञान को निज में नित धारण करते हैं । उनके हो प्रायश्चित होता सवाल दाप हरते वे ।। ११६ ।। अत्र शुद्धज्ञानस्वीकारवतः प्रायश्चित्तमित्युक्तम । उत्कृष्टो यो विशिष्टधर्मः हि परमबोधः इत्यर्थः । बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम । अत एव तस्यैव परममि। जीवस्य प्रायः प्रकरण चित्तं । यः परमसंयमी नित्यं तादृशं चित्तं धत्ते. तस्य खबर निश्च यप्रायश्चित्तं भवतीति । ( शालिनी ) यः शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा प्रायश्चित्तात्र चास्त्येव तस्य । घरति ] जो मुनि निन्य ही धारण करते हैं, [ तस्य ] उनके, [ प्रायश्चित्तं भवेत् । प्रायश्चित होता है । टीका-शुद्ध ज्ञान को स्वीकार करने वाले के प्रायश्चित्त होता है, यहां ऐसा कहा है। उत्कृष्ट जो विशिष्ट धर्म है वही परमवोध बहलाता है। बोत्र ज्ञान और चित्त ये पर्यायवाची शब्द हैं। इसीलिये उस परमधर्मी जीव का ही प्राव:-प्रकला चित्त-ज्ञान प्रायश्चित्त कहलाता है । जो परमसंयमी मुनि नित्य ही उसप्रकार के प्रकर्षमा चित्त-ज्ञान को धारण करते हैं, उनके निश्चितम्प से निश्चय प्रायश्चित होता है। [अब टीकाकार मुनिराज ऐसे परममुनि को नमस्कार करते हुए कहते हैं (१८३) श्लोकार्थ-~-जो इस लोक में शुद्ध आत्मज्ञान की सम्यकभावना परिणत हैं उन्हीं के प्रायश्चित्त होता है 1 जिन्होंने पाप समूह को धो डाला है ऐसे उन Mon
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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