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________________ शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार ( हरिणी ) "वनचरभयाद्धावन् देवाल्लताकुलवालधिः किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः । बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ।। " तथा हि ( आर्या ) क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च माई वेनैव । मायामाजवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु ।। १६२ ।। उक्किट्ठो जो बोहो, गाणं तस्सेव श्रप्पणी चित्तं । जो धरइ सुणी रिगच्चं, पायच्छित्तं हवे तस्स ॥ ११६ ॥ [ ३२५ " श्लोकार्थ - ' वनचर - भील या सिंह आदि जन्तु के भय से दौड़ती हुई चमरी गाय, जिसकी पूछ बेल में उलझ गई है वह अपने बालों में लोलुप होती हुई मूढबुद्धि से नहीं अविचल स्थित हो गई । हाय ! खेद है कि वह चमरी गाय उस लोभ से प्राणों से मारी गई । ठीक ही है तृष्णा से परिणत हुए जीवों को प्राय: करके ऐसी ही विपत्तियां प्राप्त होती हैं ।" उसी प्रकार से - [ श्री मुनिराज कपाय विजय की प्रेरणा देते हुए कहते हैं - ] ( १८२ ) श्लोकार्थ - क्षमा से क्रोध को, मार्दव से ही मान को, आर्जव के लाभ से माया को और शौच से संतोष से लोभ को जीतो । गाथा ११६ अन्वयार्थ -- [ तस्य एष आत्मनः ] उसी आत्मा का [ यः उत्कृष्टः बोध: ] जो उत्कृष्ट बोध है, [ज्ञानं ] ज्ञान है, [ चित्तं ] चित्त है, उसको [ यः मुनिः नित्यं १. आत्मानु. श्लो. २२३ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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