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________________ नियमसार (हरिगी) त्याग सुरलोकामिगले.सी मुनिमको भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम् । सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं सहजपरमात्मानं दूरं नयानय संहतेः ॥२४५॥ दव्वगुणपज्जयारणं, चित्तं जो कुरणइ सो वि अण्णवसो। मोहान्धयारबवगयसमरणा कहयंति एरिसयं ।।१४५॥ द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः । मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीदृशम् ११४५।। जी द्रव्य और गुगा पर्यय भेद को भी । चित्त में धरे वह मूनी भी अन्य वश है ।। मोहान्धकार बिरहित ऋषि भाषते यो । क्योंकी विकल्प विरहित नहिं ध्यान उसके ।। १४५।। स्ववश हो जाते हैं अर्थात् वारहवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं तब उन्हें केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने में देरी नहीं लगती है । (२४५) श्लोकार्थ--मुनि पुङ्गव-श्रेष्ठ मुनिजन सुरलोक आदि के क्लेश में रति को छोड़ो और परमानंदमय निर्वाण के कारण का कारण, सकल विमल केवल ज्ञान का निवास गृह, आवरण रहित सुनय और कुनय समूह से दूर ऐसे सहज परमात्मा को भजो-आश्रय लेवो । गाथा १४५ अन्वयार्थ-[ द्रव्यगुणपर्यायाणां ] द्रव्य गुण और पर्यायों में [ यः ] जो [ चित्तं करोति ] चित्त को लगाता है [ सः अपि अन्यवशः ] वह भी अन्यवश है [ मोहान्धकार ध्यपगत श्रमणाः ] मोहान्धकार से रहित श्रमण [ ईदृशं कथयति ] ऐसा कहते हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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