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________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार [ ३६७ अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्तम् । यः कश्चित् द्रव्यगधारी भगवबर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादन समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तीमूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थ व्यंजनपर्यावारणांमध्ये बुद्धि करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरणनित्यानंदलक्षणनिजका रणसमयसारस्वरूपतिरत सहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्मतत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्तः । प्रध्वस्तदर्शनचारित्र मोहनीय कर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवोतरासुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलितः, ते खलु कथयन्तीदृशम् अन्य वशस्य स्वरूपमिति । टीका-हां पर भी अन्य मुनि का स्वरूप कहा है जो कोई द्रव्यलिंगबारी मुनि भगवान् अर्हत के मुखकमल से निकले हुए मूल और उत्तर पदार्थ को अर्थ सहित प्रतिपादन करने में समर्थ हैं वे कभी छह द्रव्यों के मध्य में से किसी में मन लगाते हैं, कभी अनेक मूर्तिक- अमूर्तिक, चेतन और अचेतन गुणों में से किसी में मन लगाते हैं । पुनः उनकी अर्थ और व्यंजन पर्यायों में से किसी में बुद्धि को करते हैं. किन्तु त्रिकाल, निरावरण, नित्यानंदमय निजकारण समयसार के स्वरूप में लीन हुए महज ज्ञानादि शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायों के आधारभूत ऐसे निज आत्मतत्त्व में चित्त को कदाचित् भी नहीं लगाते हैं इसी हेतु से वे तपोधन भी 'अन्य' इसप्रकार से कहे गये हैं । जिन्होंने तमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूप अंधकार समूह को ध्वस्त कर दिया है ऐसे परमात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न हुये वीतराग सुखामृत के पीने में तत्पर श्रमण ही वास्तव में महाश्रमण श्रुतकेवली कहलाते हैं वे निश्चितरूप से अन्यवश के ऐसे स्वरूप को कहते हैं । भावार्थ - पूर्व गाथा में भावलिंगी ऐसे व्यवहार चारित्र में कुशल छठे गुण वर्ती को अन्यवश कह दिया है यहां पर द्रव्यलिंगी मुनि को भी अन्यवश कह दिया | मिथ्यादृष्टि से लेकर पंचम गुणस्थान तक के जीव भी द्रव्यलिंगी कहलाते हैं । ......
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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