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________________ शुद्धोपयोग अधिकार लोकालोको जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान् । यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥ १६६ ॥ भगवान् केवली यदि इन लोक श्लोक को 1 यस जानते हैं निज को नहि जानते हैं वो । यदि आप ऐसा कहते तो जान लीजिये 1 क्या होंगे इसमें परण वे ध्यान दीजिये ।। १६६ ।। [ ४५५ व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम् । सकलविमल केवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेशः षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति पराश्रितो व्यवहार इति मानात् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया कोपि जिनन्तथतत्त्वविचारलब्धः ( दक्षः ) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति । गाथा १६६ अन्वयार्थ – [ केवली भगवान् ] केवली भगवान् | लोकालोकौ ] लोकालोक को [ जानाति ] जानते हैं, [ प्रात्मानं नैव ] किंतु आत्मा को नहीं, [ यदि एवं कः अपि भणति ] यदि ऐसा कोई भी कहता है तो [ तस्य च किं दूषणं भवति ] उसको क्या दूषण होता है ? टोका-हार के प्रादुर्भाव का यह कथन है । अपुनर्भवगी कमनीय कामिनी के प्राणनाथ ऐसे सकल विमल केवलज्ञान मी तृतीय नेत्रधारी भगवान् छहों द्रव्यों से व्याप्त तोनों लोकों को और शुद्ध आकाश मात्र अलोक को जानते हैं तो व्यवहार की प्रधानता होने से वे व्यवहारनय से जानते हैं क्योंकि "व्यवहार पराश्रित है" ऐसा माना गया है, किंतु वे राग रहित शुद्धात्मा के स्वरूप को नहीं जानते हैं । यदि व्यवहारनय की विवक्षा मे कोई भी जिननाथ के तत्त्व विचार में निपुण जीव कदाचित् ऐसा कहते हैं तो उन्हें वास्तव में दूषण नहीं है । भावार्थ- -- अथवा केवली भगवान् परप्रकाशी हैं स्वप्रकाणी नहीं, ऐसी मान्यता में क्या दूषण है सो आगे दो गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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