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________________ नियममार अर्थपर्यायाः षण्णा द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकाविव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णा धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्त तद्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षदृष्टिरिति । ( वसंततिलका) यो नव पश्यति जगत्त्रयमेकदेव कालत्रयं च तरसा सकलजमानी। प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं सर्वजता कथमिहास्य जाहात्म: स्याणमय' लोयालोयं जागइ, अप्पारणं व केवली भगवं । जइ कोइ भणइ एवं, तस्स य कि दूसणं होई ॥१६६॥ करने योग्य अर्थ पर्यायें हैं जो कि छहों द्रव्यों में साधारण हैं, नर नारकादि व्यंजन पर्यायें हैं, जो कि पांच प्रकार के संसार प्रपंच-परिवर्तन से सहित ऐसे जीवों के होती हैं । पुदगलों के स्थूल-स्थल आदि स्कंध पर्याय हैं और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन चार द्रव्यों में शुद्ध पर्यायें ही होती हैं, इन गुण पर्यायों से संयुक्त उन द्रव्य समूहों को जो वास्तव में नहीं देखते हैं, उनके, संसारी जीवों के समान परोक्षरूप दर्शन होता है । अर्थात् जो बाह्य पदार्थों को नहीं देखते हैं उनका दर्शन परोक्ष ही है अतः वे सर्वज्ञ भी नहीं हो सकते हैं। [ अब टीकाकार मुनिराज पूर्ण दर्शन के बिना सर्वज्ञता भी नहीं है ऐसा कहते हैं-] (२८४) श्लोकार्थ--"जो मैं सर्वज्ञ हूं' ऐसे अभिमान वाले हुए जीव एक ही समय में तीनों जगत् को और तीनों कालों को शीघ्रता से युगपत् नहीं देखते हैं, उन्हें हमेशा अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है, पुनः यहां उन जड़ात्मा को सर्वज्ञता कैसे होगी?
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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