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________________ शुद्धयोग अधिकार पुष्बुत्तसयलदव्वं, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं । जो ग य पेच्छइ सम्मं, परोक्खविट्ठी हवे तस्स ॥१६८ || पूर्वोक्तसकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् । यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षदृष्टिर्भवेत्तस्य ।। १६८ ।। कहा है 1 [ ८५३ जो पूर्व में कई हैं संपूर्ण द्रव्य भी । नाना गुणों व नाना पर्याय युक्त भी ।। स्पष्ट रूप से जो नहि देखते उन्हें । उनका परोक्ष वन प्रत्यक्ष नहि बने ।। १६८ ।। अत्र केवलदृष्टेरभावात् सकलज्ञत्वं न समस्तीत्युक्तम् । पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्त गुण पर्यायात्मकं मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतनगुणाः, अनुसंस्थामूर्त-गुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामाण्यादभ्युपगम्याः वाले तीर्थनाथ जिनेन्द्र भगवान् लोकालोक को स्व परको तथा वेतन और अचेतन ऐस अखिल पदार्थ को सस्यक प्रकार से जानते हैं । गाथा १६८ अन्वयार्थ --- [ नाना गुणपर्यायेण ] सकलद्रव्यं ] संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को सम्यक् प्रकार से नहीं देखता है, [ तस्य दर्शन होता है । नाना गुण पर्यायों से [ संयुक्तं पूर्वोक्त[ यः च ] जो [ सम्यक् न पश्यति ] ] उसके [ परोक्षदृष्टि: भवेत् ] परोक्ष टीका —— केवलदर्शन के अभाव से सर्वज्ञता नहीं है, ऐसा यहां पर पूर्व सूत्र में कथित मृर्तादि द्रव्य समस्त गुण और पर्यायों से सहित हैं । मूर्तद्रव्य के मूर्तगुण हैं, अचेतन के अचेतन गुण हैं, अमूर्त के अमूर्त गुण हैं, चेतन के चेतन गुण हैं। छह प्रकार की हानि और वृद्धिरूप सूक्ष्म परमागमरूप प्रमाण से स्वीकार
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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