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________________ । ११ शुद्धभाव अधिकार तथा चोक्त' श्री अमृतचन्द्रसूरिमिः ( मालिनी ) "न हि विदषति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव धोतमानं समन्तात् जगदपगतमोहोभूय सम्यक्स्वभावम् ॥" माना प्रदेशबन्ध है, इस बन्ध के स्थान भी शुद्ध जोव में नहीं हैं । शुभ-अशुभ कमों की निर्जरा के समय में सुख-दुःख फल को प्रदान करने की शक्ति से यक्त अनुभागबन्ध होता है, इस अनुभाग के स्थानों का भी शुद्ध जोव में प्रवकाश नहीं है ऐसा समझना । उसीप्रकार अमृत चन्द्र सूरि ने भी कहा है लोकार्थ-"ये बद्ध और स्पष्ट भाव ग्रादि स्पष्ट रीति से ऊपर तरते हुये (मी जहां पर पाकर प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते हैं। हे जगत्-हे जगत् के जीवों ! मोह से रहित होकर आप सब अोर प्रकाशमान सम्यक् स्वभाव वाले उसी आत्मा का | हो अनुभव करो।" भावार्थ-जिस शुद्धनय के अवलम्बन से शुद्ध अवस्था में आने के बाद मैं या हूं या कर्मों से स्पर्शित हूं इत्यादि भाव यद्यपि विद्यमान हैं फिर भी वहां बुद्धिसम्य नहीं होते हैं क्योंकि जब उस निर्विकल्प ध्यान में ध्यान-ध्येय का या पंचपरमेष्ठी हो विकल्प नहीं है तब इन भावों को वहां क्या गणना होगी.? ऐसी अवस्था को भारत जो शुद्ध आत्म तत्त्व है | आचार्य कहते हैं हे जगत् के भव्य प्राणियों तुम मोह नरहित होकर उसी शुद्ध आत्म तत्त्व का अनुभव करो। 1 [अब टीकाकार श्री मुनिराज अपनी संपत्ति का भान कराते हुए तथा विप सदृश संसार के दुःखों से छुड़ाते हुए दो श्लोक कहते हैं-] 1. समयसार कलश १ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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