SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० ] नियमसार न स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा । नानुभागस्थानानि जीवस्य नीवयस्थानानि वा ।। ४० ।। इस जीव के स्थितिबंध स्थान नहीं हैं । निश्चय से प्रकृति प्रदेश स्थान नहीं हैं अनुभाग के स्थान नहीं फल भी नहीं हैं । नहि जीव के उदय स्थान कर्म जनित ये ||४०|| अत्र प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रवेशबन्धोदयस्थाननिचयो जोवस्य न समस्तीत्युक्तम् । नित्यनिरुपरागस्वरूपस्य निरंजन निजपरमात्मतत्त्वस्य न खलु जघन्यमध्यमोत्कृष्ट द्रव्य कर्मस्थितिबन्धस्थानानि । ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वाकारः प्रकृतिबन्धः, तस्य स्थानानि न भवन्ति । अशुद्धान्तस्तस्वकर्म पुद्गलयोः परस्परप्रवेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः अस्य बन्धस्य स्थानानि वा न भवन्ति । शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफलप्रदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्धः, श्रस्य स्थानानां वा न चावकाशः । न च द्रव्यभावकर्मोदयस्यानानामप्यवकाशोऽस्ति इति । गाथा ४० अन्वयार्थ - [ जीवस्य ] जोत्र के [ स्थितिबंधस्थानानि ] स्थितिबन्ध स्थान [ प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा न ] प्रकृति स्थान और प्रदेश स्थान नहीं है [ अनुभागस्थानानि न ] अनुभाग स्थान नहीं है [ उवयस्थानानि वा न ] और उदयस्थान भी नहीं हैं । टीका - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन बन्ध स्थानों का समूह तथा उदय स्थानों का समूह जीव के नहीं है ऐसा यहां पर कहा है । I नित्य हो निरुपराग स्वरूप निरंजन निजपरमात्मतत्त्व के निश्चित रूप से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप द्रव्य कर्म के स्थितिबन्ध स्थान नहीं हैं । ज्ञानावरणादि श्राठ प्रकार के कर्मों के उस उस कर्म के योग्य पुद्गलद्रव्य का जो स्वाकार अपना स्वभाव है वह प्रकृतिबन्ध है शुद्ध परमात्मतत्व के ये प्रकृतिबन्ध के स्थान भी नहीं हैं । अशुद्ध चेतनतत्त्व और कर्म पुद्गलों के प्रदेशों का परस्पर में अनुप्रवेश हो
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy