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________________ [ १३५ शुद्धभाव अधिकार ( मंदाक्रांता) "प्रात्मा भित्तस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्न भिन्न निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥" तथा हि-- ( मालिनी ) असति च सति बन्धे शुद्धजीवस्य रूपाद् रहितमखिलमूर्त्तद्रव्यजालं विचित्रम् । इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां भवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम् ॥७०॥ "श्लोकार्थ-आत्मा भिन्न है और उसके पीछे-पीछे चलने वाला कर्म भी भिन्न ही है, आत्मा और कम इन दोनों को अन्यन्त निकटता से होने याली जो विकृति है वह भी उसी प्रकार से भिन्न ही है । तथा काल और क्षेत्र हैं प्रमुख जिसमें वे भी आत्मा से भिन्न हैं । अपने-अपने गुण और कलाओं में गोभित हा ये सभी भिन्न-भिन्न भावार्थ- सभी चेतन, अचेतन आदि द्रव्य अपन-अपन गुण पर्यायों से समलंकृत हैं और एक दूसरे से अत्यंत भिन्न हैं। कर्मद्रब्य पौद्गलिक होने से वे जीव रूप नहीं हैं और जीव चैतन्यस्वरूप होने में पुद्गलम्प नहीं है। ऐसा यह कथन निश्चयनय का आश्रय करने वाला है। उसी प्रकार- [टीकाकार श्री मुनिराज भव्यों को शुद्धजीव के स्वरूप को समझाते हुए उन्लोक कहते हैं (७०) श्लोकार्थ-बंध होवे चाहे न होवे, अखिलमूर्त-पुद्गलद्रव्य का समूह जो कि विचित्र नाना प्रकार का है वह शुद्ध जीव के स्वरूप मे भिन्न है। जिनेंद्र । भगवान के वचन इस प्रकार से कहते हैं कि वह शुद्ध है बुद्धिमानों को भुवन में प्रसिद्ध है इस तत्व को हे भव्य ! तुम हमेशा जानो ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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