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________________ कुन्दकुन्दाचार्य की नय व्यवस्था : वस्तु मनमा का अधिगम-जाम, प्रमाण और भय के द्वारा होता है । प्रमाण वह है जो पदार्थ में रहने वाले परस्पर विरोधी दो धर्मों को एक साथ ग्रहण करता है और नय वह है जो पदार्थ में रहने वाले परस्पर विरोधी दो धर्मों में से एक को प्रमुख मोर दूसरे को गौण कर विवक्षानुसार क्रम से ग्रहण करना है। नयों का निरूपण करने वाले प्राचार्यों ने उनका शास्त्रीय और अध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन किया है। शास्त्रीय दृष्टि की नव-विवेचना में नय के व्याधिक, पर्यावाधिक तथा उनके नंगमादि सात भेद निरूपित किये गये हैं और प्राध्या-- स्मिक दृष्टि में निश्चय तथा व्यबहार नय का निरूपण है। यहां द्रव्याथिक और पर्यायाचित्र दोनों ही निश्चय में समा जाते हैं और व्यवहार में उपचार कथन रह जाता है। शास्त्रीय दृष्टि में बरत स्वरूप को विवेचना का लक्ष्य रहता है और अध्यात्मिक दृष्टि में जरा नय-विवेतना वा द्वारा प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का मभिप्राय रहता है। इन दोनों राष्टियों का अन्तर वतन ते हा बुन्दकुन्द प्रभूत संग्रह को प्रस्तावना में पृ ८२ पर श्रीमान सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचान जी ने निम्नांकिन पंक्तियां बहुत ही महत्वपूर्ण लिखी हैं "भास्त्रीय दृष्टि वस्तु का विलग करके उनको तह नक पहनन की नाटा करती21 उमकी दृष्टि में तिमिन कारण व व्यापार का उत्तना ही रूप है जितना उपादान कारगा के व्यापार का । और परसंयोगजन्य अवस्था भी उतना ही परमार्थ है जितनी स्वाभाविक अवस्था। जैसे शादान चारण के बिना वार्य नहीं होता घसे ही निमित्त कारण के बिना भी कार्य नहीं होता। सः कामं की उत्पत्ति में दोनों का सम व्यापार है । जमे मिट्टी के बिना घट उत्पन्न नहीं होता वैसे ही कुम्हार आदि के बिना भी घट उत्पन्न नहीं होना । ऐसी स्थिति में वास्तविक स्थिति का विश्लेषण करने वालोणास्त्रीय दृष्टि किमो एक के पक्ष में अपना मला कसे दे सकती है? इसी तरह मोक्ष जितना यथार्थ है संसार भी उतना ही यथार्थ है और ससार जितना यथार्थ है उसके कारण कलाप भी उतने ही यथार्थ हैं । संसार दगा न केवल कोद की अशुद्ध दशा का परिणाम है और न केवल पुद्गल की अण्द्ध दशा का परिणाम है। किन्तु जीव मोर पदगल में. मेल से उत्पन्न हई अशुद्ध दशा का परिणाम है। मत: त्य दृष्टि से जितना मत्य जीव का मस्तित्व है और जितना मुत्य पागन का अस्तित्व है उतना ही सत्य जन । दोनों का मेल भोर संयोगज बिकार भी है । वह मान्य की तरह पुरुष में ग्रारोपित नही है किन्त प्रकृति और पुरुप के गंयोगजन्य बन्ध का परिणाम है अतः शास्त्रीय दौर में जीव, अजीव प्रास्त्रव, बन्ध, मंबर, निजरा, पुण्य, पाप मोर मोक्ष सभी यथार्थ और सारभूत हैं । अत: सभी का यथार्थ श्रद्धान सम्पश्यमान है। और कि उसकी दृष्टि में कार्य को उत्पत्ति में निमित्त कारण भी उतना ही प्रावश्यक है जितना कि उपादान कारण, प्रत: प्रात्मप्रतीति में निमित्तभूत देव शास्त्र और गुरु वगैरह का प्रदान भी मम्यग्दर्शन है। उसमें गुणस्थान भी हैं, मार्गणास्थान भी है-सभी हैं । शास्त्रीय दृष्टि का किसी वस्तु-विशप यो साथ कोई पक्षपात नहीं है। वह वस्तु स्वरूप का विश्लेषण किसी के हित अहित को दृष्टि में रखकर नहीं करती।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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