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परमार्थ-प्रतिक्रमपा अधिकार
[ २०७ अत्र भेदविज्ञानात् क्रमेण निश्चयचारित्रं भवतीत्युक्तम् । पूर्वोक्तपंचरत्नांचिवार्थपरिज्ञानेन पंचमगतिप्राप्तिहेतुभूते जीवकर्मपुद्गलयोर्भेदरम्यासे सति, तस्मिन्नेव च में मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्से शत एव मध्यस्थाः तेन कारणेन तेषां परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति । तस्य चारित्राविचलस्थितिहेतोः प्रतिक्रमणादिनिश्चयक्रिया | निगद्यते । अतोतदोषपरिहारार्थ यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम् । प्राविशन्वेन । प्रत्याख्यानादीनां संभवरलात इति ।
। तदृढीकरणनिमित्तं ] उस चारित्र को दढ़ करने में निमिनभूत [ प्रतिक्रमणादि ] प्रतिक्रमण आदि को [प्रवक्ष्यामि ] मैं कहूंगा ।।
टीका-यहां भेदविज्ञान से क्रम से निश्चयचारित्र होता है ोमा कहा है।
पूर्वोक्त पंचरन से मुगोभित पदार्थों के ज्ञान में पंचमातम्प सिद्धति के लिए कारणभूत ऐसा जीव और कर्मपुद्गल में भेद का अभ्यास हो जाने पर, उसी-भेद के अभ्यास में ही जो ममक्ष-महामनि हमेशा स्थित रहते हैं वे इसी हेतु से मतन भेदाभ्यास से मध्यस्थ होते हैं, और इगकारण से उन पर समयमी मुनियों के निश्चयचारित्र होता है। उस चारित्र में अविचलम्थिति के लिए प्रतिक्रमण आदि निश्चयक्रियाओं को कहते हैं । अतीतकाल के दोपों का परिहार करने के लिये जो प्रायश्चिस किया जाता है वह प्रतिक्रमण है । आदि शब्द से प्रत्याख्यान आलोचना आदि भी होते | है ऐसा कहा गया है। । विशेषार्थ-पूर्वोक्तः पंचरत्नस्वाप पांच गाथाओं के मनन से जीव और पौद्गलिक कर्मों का भेद मालम होता है । उस भेदविज्ञान के दृढ़तर अभ्यास से महा
मुनि संपूर्ण संकल्प, विकल्प से रहित वीतराग अबस्था को प्राप्त होकर अपने आत्म + स्वरूप के ध्यान में तन्मय हो जाते हैं उस समय उन मुनियों के 'रत्नत्रय की एकाग्न . परिणतिरूप निश्चय चारित्र होता है। उस अवस्था में ही निश्चय प्रतिक्रमण आदि १ कियायें घटित होती हैं। इसलिये निश्चयचारित्र में निश्चल स्थिर होने के लिये ही
आचार्यदेव इन निश्चय क्रियाओं को बताते हैं । आदि शब्द से जो यहां प्रत्याख्यान आदि की सूचना की है उसको स्वयं श्री भगवान् कुदकुददेव के आगे छठे-सातवें आदि अधिकारों में निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चयआलोचना आदि का वर्णन किया है ।