SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ ] नियममार ( अनुष्टुम् ) चित्तत्त्व भावनासक्तमयी यतयो श्रमम् यतते यातनाशीलयमनाशनकारणम् ॥ १३६ ॥ सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ग केावि । श्रीसाए वोसरिता गं समाहि पडिवज्जए ||१०४ ॥ साम्यं मे सर्वभूतेषु वरं मह्यं न केनचित् । आशाम् उत्सृज्य नूनं समाधिः प्रतिपद्यते ॥ १०४ ॥ सब जीवों प्रति नित्य, समता भाव हमारा । नहीं किसी के साथ, सब प्राणा को आज भाव विशुद्ध समाधि वैर विरोध हमारा ॥ निश्चिन में बजता हूं । उसे प्राप्त करता हूं ॥ १०४ ॥ ( १३६) श्लोकार्थ - चैतन्यतत्त्व की भावना में जिनकी मति असक्त है ऐसे तिगण, यातना कष्ट देने के स्वभाव वाले यमराज के नाम में कारणभूत ऐसे यमसंग्रम में प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्त होते हैं । भावार्थ-व्यवहारसंयम के बिना निश्चयसंयम की सिद्धि असंभव है, अनएव आत्मतत्व की सिद्धि के इच्छुक मुमुक्षुजन पहले सम्यक्त्व सहित व्यवहारसंयम को निरतिचार पालते हैं पुनः उसी के बल से निश्चयचारित्ररूप ध्यान के द्वारा यमराज इस अपरनाम वाले आयुकर्म को भी समाप्त कर मृत्युंजयी भगवान बन जाते हैं । ¦ गाथा १०४ अन्वयार्थ - [ मे सर्वभूतेषु साम्यं] मेरा सभी जीवों में केनचित् बैरं न ] मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है, [ नूनं ] [ आशां उत्सृज्य ] आशा को छोड़कर [ समाधिः प्रतिपद्यते करता हूं । समभाव है, [ मह्यं निश्चित रूप से मैं, ] समाधि को प्राप्त
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy