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निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार
इहन्तर्मुखस्य परमतपोधनस्य भावशुद्धिरुक्ता । विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारस्य प्रेम मेदविज्ञानिष्वज्ञानिषु च समता मित्रामित्रपरिश्रमावान ने केनचिज्जनेन सह परं सहजवेराग्यपरिणतेः न मे काव्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधि पद्य ऽहमिति ।
तथा चोक्त श्रीयोगीन्द्रदेवंः
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( वसंततिलका)
"मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्व व लोपपन्नः स्मृत्वा परांच समतां कुलदेवतां त्वम् । संज्ञानचक्रमिदमंग गृहाण तूमज्ञानमन्त्रि मोहरिपुपमद । "
टोका - अन्तर्मुखहुए लपोवन की भाव शुद्धि का यहां पर अपन है ।
रामरन इन्द्रियों के व्यापार रहित ऐसे मुझे भेदविज्ञानी अर अज्ञानी सभी जनों में समताभाव है, मित्र और शत्रुरूप परिणति का अभाव होने से मरा किसी प्राणी के साथ वैर नहीं है, सहज वैराग्य भाव से परिणत होने से मुझे कुछ भी आशा नहीं है मैं परम समरसी भाव से सहित ऐसी परम समाधि को प्राप्त होना है ।
इसीप्रकार से श्री योगेन्द्र देव ने भी कहा है-
" श्लोकार्थ - 'हे वत्स ! तुम आलस्य को छोड़कर सहजसत्व और पराक्रम से सहित होते हुए, उत्कृष्ट ऐसी 'समता' रूपी कुलदेवता का स्मरण करके, अज्ञानरूपी मंत्री से सहित ऐसे मोहराजा रूप शत्रु का उपमर्दन करने वाले इस सम्यग्ज्ञान रूपी चत्र को शीघ्र ही ग्रहण करो ।"
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भावार्थ- सम्यग्ज्ञान रूपी चक्ररत्न से मोहराजा को भार करके तीन लोक का आधिपत्यरूप साम्राज्य पद प्राप्त किया जाता है। जो मुनिराज निष्प्रमादी होकर - समता देवी की उपासना करते हैं ये देवी के प्रसार से सम्यग्ज्ञानरूपी नकरत्न को प्राप्त कर लेते हैं. यह अभिप्राय हैं ।
१. अमृताशीनि इलोक २१ १