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________________ २८० ] नियमसार सभा हि ( वसंततिलका) मुक्तांगनालिमपुनर्भहसौरपानं दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीतिम् । संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ।।१४०॥ MAL ___ (हरिणी) जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा निजमुखसुखाम्भोधिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा । परममिना प्रवज्यास्त्रीमनःप्रियमैत्रिका मुनिवरगरणस्योच्चैः सालंकिया जगतामपि ।।१४१।। उसीप्रकार से-[ टीकाकार मुनिगज समता के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए दो श्लोक कहते हैं- ] (१४०) श्लोकार्थ-मुक्तिरूपी स्त्री के प्रति भ्रमर सदृश, निर्वाण सौख्य के लिए मलकारण, दुर्भावनापी अंधकार समूह के लिये चन्द्रमा की चांदनी स्वरूप मी उस समता को मैं अतिशय रूप से सम्यक् प्रकार भावना करता हूं, जो कि संयमी माधुओं को हमेशा ही सम्मत अर्थात् मान्य है । भावार्थ-जीवन, मरण, शत्रु, मित्र, सुख, दुःख और लाभ, अलाभ में रागढष का अभाव होना, हर्प विषाद परिणति नहीं करना, मध्यस्थ भावना से स्थित रहना ममता है। इस समता के बिना दुर्भावों का विनाश नहीं हो सकता है पुनः मंकम्प-विकल्पों के होते रहने मे निर्विकल्प ध्यान की मिद्धि असंभव है अतः हमेशा साम्प्रभाव का अवलम्बन लेना चाहिए। . . (१४१) इलोकार्थ—जो योगियों को भी दुर्लभ है, अपने अभिमुख होने से उत्पन्न हए सूख समुद्र की अतिणय वृद्धि के लिये पूर्णिमा का चन्द्रमा की चांदनीरूप है, परम संयमियों की दीक्षारूपी स्त्री की प्रिय सहेली है तथा मुनि समूह के लिये और जगत के लिए भी अतिशयरूप से अलंकार स्वरूप है, वह समता नित्य ही जयशील हो रही है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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