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त्र्यवहारचारित्र अधिकार
[ १५७ (मार्या) आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चरचौर्यमेतदिह ।
स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ॥७॥ दळूण इत्थिरूवं, वांछाभाव रिणयत्तदे [रिणवत्तवें। तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं तुरियवदं] ॥५६ ।
दृष्ट्वा स्त्रीरूपं वांछाभावं निवर्तते तासु । मैथुनसंज्ञाविवज्जितपरिणामोऽथवा तुरीयनतम् ।।५।।
जो स्त्रियों के रूप को नेत्रों में देखकर । वाञ्छा न करते विचित् परिपूर्ण विरतिधर ।। या उनके भाव मैथुन संज्ञा से रहिन जी।
त्रैलोक्य पूज्य माना महान चतुर्थ वा ।।६।। चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम् । कमनीयकामिनीनां तन्मनोहरांगनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांछापरित्यागेन, अथवा पुवेदोदयाभिधाननोकषायतीवोदयेन संजातमथनसंजापरित्यागलक्षणशुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति ।
अब टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दलाक के द्वारा तृतीय व्रत का महत्त्व बतलाते हैं |
(७८) श्लोकार्थ-वह उत्कृष्ट अचौर्यबत इस लोक में रनों के समूह को आकर्षित करता है और ( परलोक में ) स्वर्ग की देवांगनाओं के मुग्न का मूल है तथा क्रम से मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का भी कारण है ।।८।।
गाथा ५६ अन्वयार्थ—[स्त्रीरूपं दृष्ट्वा] स्त्रियों के रूप को देखकर [तासु वांछाभावं निवर्तते] उनमें जो बांछा भाव को नहीं करता है, [ अथवा मैथुनसंज्ञाविवजितपरिणामः तुरीयनतम् ] अथवा मैथुन संज्ञा से रहित जो परिणाम है, वह चौथा महावत है।
टीका--यह चौथे महावत के स्वरूप का कथन है ।
मन्दर कामिनियों में उनके मनोहर अंगों के निरीक्षण द्वारा उत्पन्न हाए कुतूहलरूप चित्त की इच्छा के परित्याग से, अथवा पुरुषवेद नामक नो कषाय के तीन