________________
-
१५८ 1
नियमसार
(मालिनी) नयति तनुशिभूमिः कामिनोना विभूति स्मरसि मनसि कामिस्त्वं तदा मद्वचः किम् । सहज परमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ॥७॥ सवेसि गंथाणं, चागो हिरवेक्खभावणापुवं । पंचमवादि' भणिदं, चारित्तभरं वहंतस्स ॥६॥
सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् ।। पंचमवतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ॥६०।।
जो ग्रन्थ नाम परिग्रह संपूर्ण त्यागते । निरपेक्ष भाव से उन्हें निग्रन्थ मानते ।। चारित्र भार का बहन जो करते उन्हीं को।
होता में पांचवाँ व्रत दिग्बस्त्र रूप जो ॥६०।। उदय से उत्पन्न हुई जो मैथुन संज्ञा है, उसके परित्यागलक्षण शुभपरिणाम से ब्रह्मचर्यवत होता है।
अब टीकाकार श्री मुनिराज स्त्री मुख की अपेक्षा सहज शुद्ध आत्मस्वरूप की महिमा को बतलाते हुए स्त्रियों के स्मरण को त्याग करने का संकेत कर रहे हैं
(७६) श्लोकार्थ-कामिनी स्त्रियों की जो शरीर विभूति, शरीर के आंगोपांग सौन्दर्य आदि हैं, हे कामी पुरुष ! तू यदि उस विभूति-सौन्दर्य आदि का मन में स्मरण करता है तब तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा? अहो ! आश्चर्य हो रहा है कि तु किस हेतु से सहज परम तत्त्व रूप निजस्वरूप को छोड़ करके अत्यधिक मोह को प्राप्त हो रहा है अर्थात् महज तत्त्वरूप जो निज परमात्मा है उसमें जो आनन्द है वह स्त्रियों के मोह में आसक्त हुए जीवों को नहीं मिल सकता है।
गाथा ६० अन्वयार्थ-[निरपेक्षभावनापूर्वम् ] किसी प्रकार की अपेक्षा से रहित निरपेक्ष भावना पूर्वक [सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः] संपूर्ण परिग्रहों का त्याग करना, [चारित्रभर
१. बदमिति (क) पाठान्तर