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________________ परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार ( वसंततिलका ) परमात्मतत्त्वं मुक्त विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् नास्त्येष सर्वनयजातगत प्रपंचो ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ।। १२० ।। सबोध मंडनमिदं मिच्छत्तपहुदिभावा, पुष्यं जोवेरण भाविया सुइरं । सम्मत्तपहुविभावा, प्रभाविया होंति जीवेण ॥६०॥ मिथ्यात्वप्रभृतिभावा: पूर्व जीवेन भाविताः सुचिरम् । सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः प्रभाविता भवन्ति जीवेन ॥ ६० ॥ मिथ्यात्व असंयत आदि भाव, जो भव के बीज बनाये हैं। गहने अनादि से लेकर के अब न कि जीवने भाये हैं | सम्यक्त्व विरति शुभ-श भाव मुक्ति के बीज बनाये हैं । उन भावों को अब तक भी तो, दोनों ने नहि भागे हैं | [ २३३ ( १२० ) श्लोकार्थ - सम्यग्ज्ञान का मंडन - आभूषणस्वरूप यह परमात्मतत्व संपूर्ण विकल्प के समूहों से सब तरफ से मुक्त है। यह समस्त नथों के समूह से होने बाला विस्तार इस परमात्मतत्त्व में नहीं है, न आप ही कहिये वह ध्यानसमूह यहां कैसे हो सकता है ? भावार्थ --- जब अनादि निधन परमात्मतत्त्व स्वयं सिद्धस्वरूप है तब साधन स्वरूप ध्यान के भेदों की उसे क्या आवश्यकता है ? यद्यपि व्यवहार नय से सयोग केवली और अयोग केवली के भी ध्यान माने हैं। क्योंकि उनके कर्मनाशरूप कार्य को देखकर कारण का अस्तित्व माना गया है, किन्तु वहां पर भी ध्यान उपचार से ही है । गाथा ६० अन्वयार्थ - [जीवेन ] जीव ने [ पूर्वं सुचिरं ] पूर्व में चिरकाल तक [मिथ्यास्वप्रसृतिभावाः भाविताः] मिथ्यात्व आदि भाव भावित किये हैं, ( किन्तु ) [ सम्यप्रमृति भावाः ] सभ्यक्त्व आदि भाव [ जीवेन ] जीव ने [ अभाविताः भवंति ] भावित नहीं किये हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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