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________________ २३२ ] नियमसार "इति विविध भंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवंति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चारा:' ॥५८।। अर्थ-इसप्रकार विविध भेदों से गहन मृदुस्तर जिनशासन में मार्ग से मूढ़ हुए जीवों को नयचक्र के संचार को जानने वाले गुरु महाराज ही शरण होते हैं । इसमें जो 'सदाशिव' शब्द आया है अन्य सम्प्रदायों में एक वैशेषिक संप्रदाय वाले हैं। जो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं उनके यहां कहा है- “सदैव मुक्त सदैवेश्वरः पूर्वस्याः कोटे मुक्तात्मानमिवाभावात्" इत्यागमान्महेश्वरस्य सर्वदा कर्मणामभावप्रसिद्ध :-"वह ईश्वर सदा ही मुक्त है, सदा ही ऐश्वर्य मे युक्त है क्योंकि जिस प्रकार मुक्तात्माओं के पूर्व-गली बंधकोटि रहती है उसप्रकार ईश्वर के नहीं है। इस आगम से महेश्वर के सदा ही कगों का अभाव सिद्ध है । "शाश्वत्कर्ममलरम्पृष्टः परमात्माऽनुपायसिद्धत्वात्" भगवान् परमात्मा सदा कर्ममलों से अस्पृष्ट हैं, क्योंकि अनुगायसिद्ध हैं—उपायपूर्वक तपस्या आदि करके मुक्त नहीं हुये हैं। इस वैशेषिक की मान्यता पर आचार्य श्री विद्यानंद महोदय कहते हैं नाम्पृष्टः कर्मभिः शश्वद्विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्थानुपायसिद्धस्य सर्वथानुपपत्तितः ॥९॥ अर्थ-कोई सर्वज्ञ हमेशा कर्मों से अस्पृष्ट नहीं है, क्योंकि वह प्रमाण से अनुपायसिद्ध प्रतिपन्न नहीं होता है। यहां पर जैनाचार्य इन लोगों का खण्डन करके भी जो परमात्मा को स्वयं सदाशिव कह रहे हैं उसमें केवल शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कथन है कि शुद्ध निश्चयनय औपाधिक अवस्था को मानता ही नहीं है, वस्तु के वास्तविक स्वरूप को ही कहता है । १. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । २. [योगाद, भाष्य, १-२४ ] आप्त परीक्षा पृ. ३०-३१, ३२ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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