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नियमसार
न परद्रव्यगत इति चेत् तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् । ततः खल्यात्मा स्वपरप्रकाशक .. इति यावत् । यथा कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्ममिणोरेकस्वरूपत्वात् पावकोष्णवदिति ।
( मंदाक्रांना) आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानग्धर्मयुक्तः तस्मिन्नेव स्थितिमविचला तां परिप्राप्य नित्यम् । सम्यग्दृष्टिनिखिलकररणग्रामनोहारभास्वान्
मुक्ति याति स्फुटितसजावस्थया संस्थितां ताम् ॥२७॥ गाणं परवयास, ववहारणयेण दंसणं तम्हा । अप्पा परप्पयासो, ववहारणयेण सणं तम्हा ॥१६४॥
- -- . . . ... - - भिन्न हो जायेगा, ऐमा समझना चाहिये । और यदि "आत्मा परद्रव्यगन नहीं है" ऐसा कठोग तो दर्शन भी अभिन्न ही रहेगा ऐसा समझना चाहिये । अयान आत्मा को स्वपरप्रकाशी कहने से दर्शन को भी आत्मा से अभिन्न ही कहना चाहिये । इमलिये आत्मा निश्चितरूप से स्वपरप्रकाशक है, ऐसा समझना । जैसे कथंचित् ज्ञान को स्वपरप्रकाशी सिद्ध किया है वैसे हो आत्मा को समझना, क्योंकि धर्म और धर्मी एक स्वरूप हैं, अग्नि और उष्णता के समान । अर्थात-आत्मा धर्मी है, क्योंकि वह अतिशयरूप से ज्ञान और दर्शन से युक्त हैं ।
[ अब टीकाकार मुनिराज पुनरपि धर्म और धर्मी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
(२७६) श्लोकार्थ-आत्मा धर्मी है, क्योंकि वह अतिशयरूप से ज्ञान और दर्शन से युक्त है उसमें ही नित्य उस अविचल स्थिति को प्राप्त करके, अखिल इन्द्रिय समूहरूपी हिम के लिये सूर्य स्वरूप सम्यग्दृष्टि 'जीव' प्रगट हुयी सहज अवस्था से सुस्थित ऐसे उस मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।