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________________ ... १०८] नियमसार न खलु स्वभावस्थानानि न मानापमानभावस्थानानि या। न हर्षभावस्थानानि न जीवस्याहर्षस्थानानि वा ॥३६॥ स्वभाव प्रो विभाव स्थान जीव के नहीं। नहिं मान व अपमान भाव जीब में कहीं। नहिं हर्ष भाव भी कभी होता है जीव के । वैसे हि न विषाद भाव भी हो जीव के ।।३।। निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वमावस्थानानि । प्रशस्ताप्रशस्त समस्तमोहागढषाभावाप्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि । न खल शुभपरिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान संसारसुखं, संसारसुखस्या भावान्न हर्षस्थानानि । न चाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति । ___-- - टीका-यह निर्विकल्प तत्त्व के स्वरूप का कथन है । तीनों कालों में उपाधि रहित है स्वरूप जिसका, ऐसे शुद्ध जीवास्तिकाय के निश्चितरूप से निभावरूप स्वभाव स्थान नहीं हैं, उस शुद्ध जीव के प्रशस्त और अप्रशस्त रूप संपूर्ण मोह-राग तथा द्वेष का प्रभाव हो जाने से मान-अपमान में कारणभूत ऐसे कर्मों के उदयरूप स्थान नहीं हैं, वास्तव में शुभ परिणति के अभाव से शुभ कर्म नहीं हैं, शुभ कर्म के अभाव से संसार सुख नहीं है और संसार सुख के अभाव से जीव के हर्षस्थान भी नहीं हैं तथा अशुभ परिणति के प्रभाव से अशुभ कर्म नहीं हैं प्रशुभ कर्म के प्रभाव से दुःख नहीं हैं और दु:ख के अभाव से हर्ष से विपरीत विषाद आदि स्थान नहीं हैं ऐसा समझना चाहिए । विशेषार्थ ---यहां पर भी गाथा में श्री आचार्य देव ने कहा है कि जोव के स्वभाव स्थान नहीं है। अभिप्राय यह है कि यहां पर निर्विकल्प तत्व का वर्णन होने से स्वभाव और विभाव आदि सभी विकल्प दूर किये गये हैं अथवा संसारी जीवों के जो भाव हैं वे संसार अवस्था में जीव के स्वभाव कह दिये जाते हैं उनकी विवक्षा से भी यहां स्वभाव शब्द को लिया जा सकता है जैसे कि टोकाकार ने स्वभाव के पहले
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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