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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ( अनुष्टुभ् ) पद्मप्रभाभिधानोद्धसिन्धुनाथसमुद्भवा t उपन्यासोमिमायं स्थेयाच्चेतसि सा सताम् ॥ ३०६ ॥ ( अनुष्टुभ् ) अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्ध पदमस्ति चेत् । लुप्त्वा तत्कवयो भद्राः कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ॥ ३१०॥ ( वसन्ततिलका ) यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम् । तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्तिः स्थेयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव ||३११|| [ ४ee ( ३०६ ) श्लोकार्थ --- पद्मप्रभ नाम के उत्कृष्ट समुद्र से उत्पन्न हुई यह रचना रूपी-तरंगमाला है, वह सत्पुरुषों के चित्त में स्थित रहे । ( ३१० ) श्लोकार्थ - - इस ग्रंथ में कोई पद व्याकरण शास्त्र से विरुद्ध होवे तो भद्रस्वभावी कविजन उसका लोप करके पदों को उत्तम कर लेवें । भावार्थ --- यदि इस शास्त्र में व्याकरण शास्त्र से कोई पद, वाक्य गलत हो तो भद्र परिणामी कवि इसको सुधार कर पढें, यह तात्पर्य है । ( ३११ ) श्लोकार्थ --- जब तक तारागणों से घिरा हुआ पूर्णचन्द्र बिंत्र सुन्दर सदागतिपथ - आकाश मार्ग में शोभित होता रहे तभी तक जिसने हैयवृत्तियों को दूर कर दिया है, ऐसी यह तात्पर्यवृत्ति व्याख्या सत्पुरुषों के विशाल हृदय में स्थित रहे ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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