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________________ ३५२ ] ** नियमसार ( अनुष्टुभ् } अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम् । आत्मवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहुः ॥२०७॥ (शिखर) विकल्पोपन्यासंरलमलममीभिर्भवकर रखण्डानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः । अयं द्वता तो न भवति ततः कचिदचिरात् तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम् ॥ २७६ ॥ (शिव) सुखं दुःखं योनौ सुकृतदुरितवानजनितं शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च । देकस्याप्युच्चैर्भवपरिश्वयो बाइमिह नो य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम् ॥ २०६॥ ( २०७ ) श्लोकार्थ -- मैं सुख को आकांक्षा करने वाला आत्मा जन्म रहिन और नाश रहित ऐसी अपनी आत्मा को, आत्मा के द्वारा ही आत्मा में स्थित होकर पुनः पुनः भाता हूँ । ( २०८ ) श्लोकार्थ - भव को करने वाले इन विकल्प के कथनों से बस होने, बस होवे | अखंड आनन्दस्वरूप आत्मा सकलनय समुह का अविषय है इसलिये यह कोई ( एक अद्वितीय) आत्मा द्वैत और अद्वैत रूप नहीं है. मैं शीघ्र ही भवभय के नाश हेतु सतत उस एक स्वरूप आत्मा की वंदना करना हूँ । ( २०६ ) श्लोकार्थ - योनि में जन्मरूप संसार में सुख और दुःख सुकृत और दु त के समह से उत्पन्न हुए हैं, पुनः आत्मा को शुभ का ही अभाव है अथवा अशुभ परिणति भी नहीं है नहीं है, क्योंकि इस संसार में इस एक आत्मा को भव का परिचय अत्यन्त रूप से बिलकुल नहीं है । इसप्रकार से जो भव के गुण समूह से संन्यस्त हो चुका - मुक्त हो चुका है, उसकी मैं स्तुति करता हूं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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