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________________ न ३१४ ] नियमसार विशदविशवं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ मुखं किमपि मनसा वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७।। (द्रुतविलंबित) जयति शांतरसामृतवारिधिप्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः अतुलबोधदिवाकरदीधितिप्रहतमोहतमस्समितिजिनः ।।१७।। (द्रुतविलवित) विजितजन्मजरामृतिसंचयः प्रहतदारुणरागकदम्बकः । अधमहातिमिरव्रजभानुमान् जयति यः परमात्मपदस्थितः ।।१७६।। स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचों से पराङ मुख है तथा कोई एक अद्भुत है, मुनि में मन और वचनों से दूर है ऐसे इस तत्त्व को हम नमस्कार करते हैं । ।। भावार्थ--यहां पर इस नत्र को मुनि के भी मन तथा वचन से दूर । दिया है, अभिप्राय यह है कि शुक्लध्यानम्प वीतराग निर्विकल्प समाधि की अवस्था वीतरागी मुनियों के अनुभव का ही विषय है । इस परमतत्त्व के प्राप्त होते ही के ज्ञान प्रगट हो जाता है । यह अवस्था बारहवें गुणस्थान की है ऐसा समझना।। (१७८) श्लोकार्थ-शांत रस रूपी अमृत समुद्र को प्रतिदिन द्धिगत का हुये ऐसे सुन्दर चन्द्रमारूप तथा अतुलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से मोहध्वांत के को प्रकृष्टरूप से नष्ट करने वाले ऐसे जिनभगवान् जयशील होते हैं । (१७६) श्लोकार्थ-जिन्होंने जन्म, जरा और मरण समूह को जीत कि है, जिन्होंने दारुण राग के समुदाय को प्रकर्षरूप से नष्ट कर दिया है, जो पापा महातिमिर समूह को समाप्त करने के लिये सूर्य हैं जो ऐसे परमात्मपद में स्थित है। सदा जयवंत हो रहे हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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