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________________ ३०४ ] नियमसार कर्म से भित आतमा को जो भावते । उसको निर्मल गुणों का निलय जानते ।। लीन होते सदा भाव मध्यस्थ में हो अविकृतिकरण जानिये तब उन्हें ।। १११ ॥ इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्तः । यः पापाटीमा द्रव्यभावनो कर्मभ्यः सकाशाद भिन्नमात्मानं सहजगुण [-निलयं माध्यस्थ्यभावन भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति । ( मंदाक्रांता ) आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशेशमदमगुणाम्भोजिनी राजहंसः । रन्तः शुद्धः मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं नित्यानंदाद्यनुपम गुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ॥ १६२ ॥ भावनायां] उस मध्यस्थ- वीतराग भावना में [ अविकृतिकरणं ] अविकृतिकरण है [ इति विज्ञेयं ] ऐसा जानना चाहिये । टीका--यहां पर शुद्धोपयोगी जीव की परिणति विशेष को कहा है। जो पाप वन को जलाने में अग्नि सदृश हुआ द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो के संपर्क से भिन्न तथा सहजगुणों के स्थानस्वरूप ऐसी आत्मा को वीतराग भावना है भाता है उसके अविकृतिकरण नामकी परमआलोचना का स्वरूप होता ही है। [ अब टीकाकार मुनिराज शुद्धोपयोग के सन्मुख करने वाली भावना भाते हुये नौ श्लोक कहते हैं- 1 (१६२) श्लोकार्थं - आत्मा सदैव द्रव्यकर्म और नोकर्म समूह से भिन्तु अन्तरङ्ग में शुद्ध हैं, शम दम गुणरूपी कमलिनी का राजहंस है अर्थात् कषायों का क Li १. कुछ पाठ छूटा हुआ प्रतीत है अतः उसे जोड़कर अर्थ किया है । .
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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