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________________ परम - आलोचना अधिकार ( मंदाक्रांता ) ܬ प्रक्षणार्थमगि राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहः कलंकः । शुद्धात्मा यः प्रहतकररणग्रामकोलाहलात्मा ज्ञानज्योतिः प्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति ॥ १६३॥ ( वसंततिलका) संसारघोर सहजादिभिरेक रौद्रदुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने । [ ३०५ और इन्द्रियों का दमन ये दो गुण प्रमुख हैं ये ही कमलिनी के सदृश हैं इसमें केलि करने वाला यह आत्मा राजहंस के समान है, नित्यानंद आदि अनुपम गुण स्वरूप और चिचमत्कार की मूर्तिस्वरूप सो यह आत्मा मोह के अभाव से अन्य संपूर्ण विभावों को नहीं ग्रहण करता है । भावार्थ — जिसप्रकार राजहंस कमलों में केलि करता है उसीप्रकार आत्मा रूपी राजहंस वान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणों में रमना है । वीरप्रभु का शासन शमदम शासन कहलाता है ये दो गुण ही संपूर्ण गुणों की शोभा को बढ़ाने वाले हैं इनके बिना अन्य गुण फीके हैं । इन गुणों को प्रमुख कर के अनन्तगुण पुंज आत्मा चैतन्यमयी चमत्कारी मूर्ति स्वरूप है। विश्व में अलौकिक चमत्कार को प्रगट करने वाली है । ( १६३ ) श्लोकार्थ - जो अक्षय, अन्तर में गुण मणियों के समूहरूप है, जिसने "अत्यन्त स्वच्छ ऐसे शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में अपने पापरूपी कलंक को धो डाला है जिसने इन्द्रिय ग्रामों के कोलाहल को समाप्त कर लिया है तथा जिसने ज्ञानज्योति से - अंधकार दया को प्रकर्षरूप से नष्ट कर दिया है ऐसी शुद्धात्मा अतिशयरूप से प्रकाशमान हो रहीं है । ( १६४ ) श्लोकार्थ -- संसार के घोर साहजिक इत्यादि भयंकर दुःखादिकों से प्रतिदिन संतप्त होते हुए इस जगत् में ये मुनिनाथ समता के प्रसाद से शमभावरूप अमृतमयी हिमसमूह प्राप्त कर लेते हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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