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________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६१ नास्ति, परतो गतिहेतोधर्मास्ति कायाभावात् यथा जलाभावे मत्स्यानां गतिक्रिया नास्ति । अत एव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तरक्षेत्रपर्यन्तं स्वभाविभावगतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति । (अनुष्टुम् ) त्रिलोकशिखरावं जीवपुद्गलयो योः । नेवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावतः ।।३०४।। रिणयमं णियमस्स फलं, णिट्ठिपवयरणस्स भत्तीए । पुवावरविरोधो जदि अवरणीय पूरयंतु समयण्हा ॥१८५॥ नियमो नियमस्य फलं निर्दिष्टं प्रवचनस्य भक्त्या । पूर्वापरविरोधो गद्यपनीय पुरयंतु समयज्ञाः ।।१८५।। इस विध रा जो नियम है औ उस नियम का फल । प्रवचन की भक्ति से ही, मैंने कहा सनल ।। यदि इनमें कुछ भी पूर्वापर से विरोध हो । शोधन कर उसका जो, शनी विशेष हों ।। १८५।। --- . . .- - - - ऊपर गतिक्रिया नहीं है, क्योंकि उसके आगे गति के हेतुभूत ऐसे धर्मास्तिकाय का अभाव है, जैसे जल के अभाव में मछलियों की गति क्रिया नहीं होती है। इसलिये जहां तक धर्मास्तिकाय रहता है उतने क्षेत्र पर्यंत ही स्वभाव और विभावरूप गति क्रिया में परिणत हुये जीव और पुद्गलों का गमन होता है । [ टीकाकार मुनिराज इसी बात को कलश काव्य से कहते हैं- (३०४) श्लोकार्थ-त्रिलोक शिखर से ऊपर में जीव और पुद्गल इन दोनों का गमन नहीं होता है। क्योंकि वहां नित्य ही गति हेतुक ( धर्मास्तिकाय ) का अभाव है। गाथा १६५ अन्वयार्थ--[नियमः नियमस्य फलं] नियम और नियम का फल [प्रवचनस्य भक्त्या] प्रवचन की भक्ति से [निर्दिष्टं] कहा गया है । [यदि पूर्वापरविरोधः] यदि
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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